मानसिक स्वच्छता

Gurudev - the Guru of Gurus

मानसिक स्वास्थ्य के लिए मन का स्वच्छ होना जरूरी है क्योंकि मानसिक स्वास्थ्य जीवन की गुणवत्ता का एक महत्वपूर्ण कारक है।

मानसिक अशांति के मुख्य स्रोत विचार और भावनाएं हैं। मन की कल्पना गोदाम के रूप में करिए। इसके कचरे को साफ करने का अर्थ है अनचाही फेहरिस्तों से छुटकारा। यदि अव्यवस्था को नियमित रूप से कम किया जाए, तो बहुत सारी उपयोगी मानसिक ऊर्जा संरक्षित की जा सकती है। इतना ही नहीं, आप खुद को मनोदैहिक विकारों से मुक्त रख सकते हैं।

व्यवस्थित मन ही आत्म-अवलोकन और आत्म-चिंतन के लिए जगह बनाता है तथा सतत जागरुकता का मार्ग प्रशस्त करता है। हालांकि अन्य लोग आपको स्वयं में सुधार के लिए प्रेरित कर सकते हैं, लेकिन जब तक आप खुद का निरीक्षण करना नहीं सीखते और अपने दिमाग को आपके विचारों को जांचने-परखने और स्पष्ट रूप से प्रकट करने की अनुमति नहीं देते, तब तक स्व-परामर्श उतना प्रभावी नहीं होगा जितना कि होना चाहिए।

महागुरु के पास कई विचारों को एक-पंक्ति में व्यक्त करने की अलौकिक क्षमता थी; अपने एक वाक्य- “विचार विषय से आता है” में उन्होंने विचार के उद्भव की पूरी कहानी कह दी। मुझे उनके छोटे वाक्य को फिर से बनाने के लिए कई वाक्यों का उपयोग करना होगा।

  • विचार हमारी इंद्रियों के संपर्क से उभर सकते हैं। यदि आप संवेदी सूचनाओं पर अपनी प्रतिक्रियाओं को नियंत्रित कर सकें, तो आप मन में उठने वाले उन विचारों को नियंत्रित कर सकते हैं।
  • आप किस तरह के विचारो से आकर्षित होते हैं, इसका निर्धारण भी आपका गुण मिश्रण ही करता है। अपने गुण मिश्रण को बदलने पर काम करके, आप अपने मन को आकर्षित करने वाले विचारों की प्रकृति को बदल सकते हैं।
  • आपका मन विचारों को आकर्षित कर सकता है। एक ही समय में दुनिया के विभिन्न हिस्सों में एक ही तरह की खोजें क्यों होती हैं, यह भी मन की चुंबकीय प्रकृति ही बताती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि एक साथ कई लोगों के मन, एक जैसे विचार वातावरण से आकर्षित करते हैं। ध्यान दें, वातावरण में प्रभावी विचार गतिशील होते हैं और समय के साथ निरंतर बदलते रहते हैं।
  • प्रयोजनार्थक शरीर में संग्रहीत संस्कारों के आने से भी विचार उत्पन्न होते हैं। मन आमतौर पर एक आत्म-प्रतिबिंबकारी की भूमिका निभाता है और संस्कारों को विचारों के माध्यम से समझता है।

केवल तब, मैं गुरुदेव की बातों को पूरी तरह समझ पाया, जब एक “विचार” मुझसे आ टकराया। दसियों साल पहले, गहन ध्यान के दौरान, मैंने अपनी आंखें खोलीं और अपने कमरे के एक कोने से अपने माथे के मध्य बिन्दु के ऊपर आती हुई प्रकाश रेखा को देखा। मेरे सिर से टकराते ही यह किरण विलीन हो गई और उस समय मेरा विचार एकदम स्पष्ट था! इस अनुभव से पहले, मैं सकारात्मक विचारों का आनंद लेता और नकारात्मक विचारों को सहन करता था। हालांकि, उस दिन विचार रूपी रेखा को “देखने” पर, मैं समझ गया कि विचार न तो मेरी पसंद थे और न ही मैं इनका जन्मदाता था। मैं उनके स्वामित्व का दावा नहीं कर सकता था!

अपराध या खुशी की भावना से मुक्ति, इस एहसास का अतिरिक्त लाभ था! उसकी सजा मुझे नहीं मिल सकती, जो मैंने नहीं किया। इसके अलावा, चूंकि एक ही विचार कई लोगों के दिमाग में एक साथ आ सकता है, इसलिए विचार न तो स्वामित्व के योग्य हैं और न ही अद्वितीय हैं।

महागुरु के वरिष्ठ शिष्य, एफसी शर्मा जी ने विचारों पर अपने गुरु के विचारों को याद करते हुए, अपने कोमल स्वर में कहा, “जब आप भौतिक रूप में होते हैं, तो आप विचारों के प्रवाह को नहीं रोक सकते। इसलिए, आपको उन्हें अपनी इच्छानुसार आने देना चाहिए परन्तु उन पर जल्दबाजी में प्रतिक्रिया न करें। इसके बजाय, आपको उनका मूल्यांकन करके यह निश्चित करना चाहिए कि किन पर प्रतिक्रिया करनी है और किन्हें खारिज कर देना है।”

निष्पक्षता, विचार प्रबंधन का एक अभिन्न हिस्सा होना चाहिए क्योंकि इससे आप बिना किसी ओर झुके उन विचारों का निरीक्षण कर सकते हैं। हालांकि, पोषित विचारों पर ज्यादा चिन्तन-मनन उन्हें एहसास में तब्दील कर देता हैं, जो फिर भावनाओं का रूप ले लेते हैं। भावनाएं आपकी क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं को और अधिक तूल देती हैं, जिसके कारण आपका मानसिक प्रदर्शन संतुलन में नहीं रहता! इसके परिणामस्वरूप आप अपने दिमाग की पूरी क्षमता के बजाय अपने मस्तिष्क की सीमित क्षमता का ही उपयोग कर पाते हैं।

एफसी शर्मा जी ने भी भावनाओं पर गुरुदेव के विचारों को प्रतिध्वनित करते हुए कहा, “हर किसी में भावनाएं होती हैं, और उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। लेकिन उन्हें न तो सहेजें और न ही उन्हें अपने आचरण का आधार बनाएं। इनसे किसी को कोई फायदा नहीं होता। इसके बजाय, वे भ्रमित और अक्सर गलत निर्णय का कारण बनती हैं।”

भावनाएं आपको जुड़ाव और संबंधों के माध्यम से भौतिक वस्तुओं से बांधती हैं और इसलिए आध्यात्मिक राह में बाधा बन जाती हैं। स्वयं के साथ आपके संबंध स्वाभाविक रूप से भावहीन होते हैं, भले ही दूसरों के साथ ये संबंध भावनात्मक हों। इसलिए, आत्म-खोज की तलाश में रहने वालों को अपनी भावनाओं का मोल जरूर आंकना चाहिए।

जब लोग गुरुदेव को अपने जीवन और उसकी समस्याओं के बारे में बताते, तो वह उनकी बात ध्यान से सुनते। वह उन्हें उनकी भावनाओं के बोझ को कम करने में मदद करते। कभी-कभी, वह लोगों के साथ साथ सांत्वनापूर्ण ढंग से, उनकी भावनाओं से सहानुभूति दिखाते हुए खड़े हो जाते। हालांकि, जब उनसे पूछा जाता कि कैसे वह रोज इतनी करुण कहानियों से विचलित हुए बिना इन्हें सुन पाते हैं, तो उनका जवाब होता, “उस पल के बाद मैं सब कुछ मालिक को समर्पित कर देता हूं और उसकी याद भी नहीं रखता।” (मालिक गुरुदेव का परम-आत्मा को संबोधित करने का तरीका था)।

जब किसी अनुभव के साथ कोई भावना जुड़ती है, तो वह स्मृति बन जाती है। इन स्मृतियों को संस्कार के रूप में भविष्य के जीवनकाल में संग्रहीत किया जाता है। इस जीवन या अगले में, ये संस्कार विचारों और परिस्थितियों के रूप में पुनः प्रकट होते हैं। और इस तरह, भावनाओं, संस्कारों और विचारों के बीच का संबंध आपके वर्तमान जीवनकाल के बाद भी चक्रीय रूप से जारी रहता है।

महागुरु निरंतर सजग रहते थे और अपने हर मिलने या जानने वाले के अतीत, वर्तमान और भविष्य को जानने का भारी बोझ उठाते थे। उन लोगों के जीवन के इतिहास और रहस्य को जानने के बाद, उनके लिए आवश्यक था कि वे अपनी भावनाओं को काबू में रखें और निर्लिप्त रहें। यदि वह अपनी भावनाओं से विरक्त नहीं होते, तो लोगों के भविष्य के ज्ञान से उत्पन्न होने वाली भावनाएं उसके मन में तबाही पैदा कर देतीं। इसलिए, भावनात्मक नियंत्रण में महारत हासिल करना ही एकमात्र तरीका था, जिससे वह अपने मन को शांत और अपने अलौकिक अन्तर्ज्ञान को सहजता से निभा सकें।

सेवा में अक्षमता ही एकमात्र ऐसी चीज थी, जिससे उन्हें भावनात्मक रूप से चिढ़ थी। उन्होंने न केवल अपने लिए सेवा को एक मिशन बनाया, बल्कि उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया कि उनके शिष्य भी उनके दर्शन को साझा करें। जब लोग सेवा में लापरवाह हो जाते या जब उनके अहंकार उन पर हावी हो जाते, तो महागुरु अपने अभिनय का जामा पहनकर सेवादारों को फटकारते और सार्वजनिक सेवा के उच्च मानकों को पूरा करने के लिए प्रेरित करते।

वास्तव में, मन की क्रियाशीलता के लिए मन का स्वच्छ होना महत्वपूर्ण है। आपका मन आपका प्रतिबिंब है और इसलिए यह आपके दर्पण की तरह कार्य करता है। एक दर्पण, जो आपकी भौतिक उपस्थिति के पीछे छिपे आपके वास्तविक स्वरूप को देखने में मदद करता है।

अपने मन को व्यवस्थित करने के लिए आपको दर्पण को पुनः परिभाषित करना पड़ेगा

Quoteदर्पण जितना साफ होगा,
उतना ही स्पष्ट आत्मबोध होगा
और उतनी ही ऊंची आपकी आध्यात्मिक जागरूकता होगी”

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