दर्शन एवं अभ्यास

एक से अनेक, अनेक से एक

महागुरु अपनी बातचीत में एक वाक्य अक्सर दोहराते थे, एक से अनेक, अनेक से एक।

आमतौर पर पंजाबी में बातचीत करने वाले गुरु अपने बात की समाप्ति पर, उसका सार एक पंक्ति में स्पष्ट हिंदी में दे देते थे।

चेतना के अन्तर्गत अनुभवजन्य प्रयासों में तंत्रिका डेटा, मनोवैज्ञानिक मॉडल और दार्शनिक विश्लेषण का अध्ययन शामिल है। लेकिन जहां विज्ञान, चेतना की वैयक्तिक धारणाओं का पता लगाने का एक साधन है, वहीं आध्यात्मिकता इसमें प्रवेश करने की विधि।

लोकलुभावन विश्वास के विपरीत, आध्यात्मिकता का लक्ष्य आत्म-विकास नहीं है; यह ‘अहम्’ का विघटन और उसका सृजन के स्रोत में मिल जाना है।

स्रोत = सर्वोच्च चेतना

सर्वोच्च चेतना एकमात्र मूल ब्रह्मांडीय पहचान है। बाकी सभी पहचानें उससे अलग हुई हैं। स्रोत कई परमाणु और उप-परमाणु अंशों में विघटित हो सकता है, जितने वह चुनता है। प्रत्येक अंश स्रोत की पहचान को बनाए रखता है लेकिन उसकी क्षमता कम हो जाती है।

भले ही वे एक ही स्रोत से विभाजित होते हैं, पर प्रत्येक विघटित अंश एक अलग इकाई के रूप में व्यवहार करता है, लगभग वैसे ही जैसे ब्रह्म से अनभिज्ञता होने पर, हम इसकी उत्पत्ति और शक्ति से अनजान हो जाते हैं। विघटित होने पर, हर कोई अपना संसार रचने के लिए अपनी अंतर्निहित इच्छाशक्तियों का उपयोग करता है, जिनमें आत्म-ग्लानि, संवेदना एवं संस्कार शामिल हैं और जो अहम, बुद्धि और मन के भीतर ढकी होती हैं।

विघटित अंश = जीवात्मा

एक बार जब जीवात्मा अपने आप को अपने मूल से अलग समझने लगता है, तो वह अपने आत्मिक-शक्ति से अनभिज्ञ द्वंद्व का शिकार हो जाता है। धीरे-धीरे, खुद से परे देखने में असमर्थ, वह माया और उसके रचित जाल में फंस जाता है।

समय के साथ, जैसे-जैसे जीवात्मा अपनी बनाई दुनिया में गुम होती जाती है, वह अपनी वास्तविकता को भूल जाती है। विघटित अंश के रूप में न तो यह खुद को पहचानती है और न ही ब्रह्मांडीय विघटन के परिणामस्वरूप विघटित हुए अपने भाई-बंधुओं को। पहचान की प्रक्रिया में जन्म और मृत्यु के कई चक्र हो सकते हैं। आखिरकार, जब जीवात्मा जागृत होती है और स्वयं को पहचानती है, तो वह सर्वोच्च चेतना या परम-स्वरूप में विलीन होने की अभिलाषा करती है और पुनः पूर्णत्व को प्राप्त हो जाती है।

वास्तविकता का ज्ञान, इसकी पूर्णता, इसके अहंकार की सच्चाई और अस्तित्व पर सवाल खड़ा करती है। सत्य का ज्ञान हमें आत्म-पहचान से जुड़ी अज्ञानताओं को जानने की ओर अग्रसित करता है। मानव शरीर एक मिट्टी के बर्तन की तरह है, जो मिट्टी से बर्तन बनने तक की अपनी यात्रा को देखता है और अहंकार के दोषपूर्ण तर्क से गढ़ी गई झूठी पहचान की अनुभूति होने पर, वह स्रोत में लौटने की आवश्यकता महसूस करता है। अहंकार से एक झटके में विमुख नहीं हुआ जा सकता, बल्कि यह कई स्तरों के साथ चलने का मार्ग है। इस प्रक्रिया में सामान्य मान्यताओं को तोड़ना, मिटाना और दोषपूर्ण आत्म-प्रतिबिंब से अलग होना शामिल है।

एक से अनेक, अनेक से एक, परम-आत्मा से जीवात्मा में परिवर्तन की प्रक्रिया को दर्शाता है और फिर अंत में वापस परम-स्वरूप में ले जाता है।

संक्षेप में, यह दोहरेपन, माया, जीवात्मा, परम-सत्ता और मोक्ष की तकनीकी की कहानी है। सरल व्याख्या के बावजूद, किसी भी प्राणी के लिए सभी शंकाओं को परे कर, इस अवधारणा की वास्तविकता को समझना सबसे चुनौतीपूर्ण उपलब्धि है, क्योंकि यह उपलब्धि स्थायी महत्ता के बारे में है।

परम्परागत रूप से एक सिद्ध गुरु अंधकार को समाप्त करता है। अज्ञानता की उपमा अंधकार से दी जाती है। ब्रह्म की अखंडता और सृष्टि को लेकर भ्रम की अज्ञानता। गुरु की कृपा जीवात्मा और परमात्मा के बीच सेतु का काम करती है, और दिव्यता से इसकी दूरी कम करती है।

महागुरु की अवस्था में, परमात्मा से मिलन के लिए तैयार जीवात्मा स्वेच्छा से इस मायावी संसार में रहने का चुनाव कर सकती है। ऐसी जीवात्मा संसार की स्थिति को सुधारने के लिए स्वेच्छा से मानव रूप में जन्म लेने का विकल्प चुन सकती है।

गुरुदेव की शिक्षाएं और प्रथाएं उनके दर्शन की व्याख्या करती हैं। उनका उपयोग अपने आध्यात्मिक कम्पास की तरह करें। यदि आप ईमानदारी से प्रयास करेंगे,तो उनकी कृपा भी होगी।


एक से अनेक, अनेक से एक

दोहरापन दूर रखे अखंडता,
माया हर लेती है आजादी,
सत्य गुम हो जाता अंधकार में,
छोड़ जाता बस एक निशान।

होती है एक नए संसार की रचना
जहां बसता हूं मैं और मेरा अहम
और आत्मा शरण लेती है
द्वंद्व के गर्त में

‘अहम्’ प्रतिबिंब बन जाता है
आईना बताता है कहानी उसकी।
“तत् त्वम् असि” एक वाक्य है
जो देवत्व के एहसास पर ही होता है ध्वनित।

गुरु अपनी भुजाएं फैलाता है
हमें अपनी बांहों में लेने के लिए।
हम भ्रम की स्थिति से बाहर निकलते हैं
उसके ढले हुए सांचे में।

अंतिम सत्य समझा जाता है,
गुणन एक मिथक है।
‘आत्मा’ अविभाज्य है
अखंड है सर्वोच्च चेतना।