पारिवारिक व्यक्ति
पिता
वे हर मुश्किल को अविचलित भाव से स्वीकारते थे,
न आडंबर, ना उपदेश,
बस जिया अपना जीवन और सिखाया जीवन दर्शन।।
एक अभिभावक के रूप में, गुरुदेव अपने स्नेह का अत्यधिक प्रदर्शन नहीं करते थे। अपने बच्चों के लिए उनका प्यार उनके द्वारा साझा किए गए ज्ञान में अभिव्यक्त होता था, और कभी-कभी ही बच्चों के प्रति अपना लाड़-दुलार व्यक्त करते थे।
जब एक लोकप्रिय भारतीय अभिनेता एक फिल्म की शूटिंग के दौरान गंभीर रूप से घायल हो गया था, तो गुरुदेव की बेटी रेणु जी और बेटे परवेश जी ने अपने पिता से उसकी मदद का अनुरोध किया कि उनके हस्तक्षेप से उस अभिनेता को जीवन दान मिल जाएगा। अभिनेता के प्रशंसक इन बच्चों की आंखों में आंसू देखकर, गुरुदेव ने रिआयतपूर्वक उन्हें अभिनेता की तस्वीर के साथ कागज पर अपना अनुरोध लिखकर स्थान पर रखने के लिए कहा। जैसा कि विधि का विधान था, वह अभिनेता बच गए, और बच्चों को उनका मनचाहा मिल गया।
भले ही उनका अधिकांश खाली समय दूसरों की सेवा में बीतता था, लेकिन गुरुदेव हमेशा अपने पिता के कर्तव्यों के प्रति सचेत रहते थे। जब उनकी बेटियों ने उन मामलों पर सलाह मांगी, जो उन्हें परेशान करती थी, तो गुरुदेव उनकी बात ध्यान से सुनते। उन्हें सलाह देते। बसंत (वसंत) के त्योहार के दौरान, वह अपने बेटों के लिए पतंग बनाते थे और उन्हें पतंगबाजी में महारत हासिल करने के गुर सिखाते थे।
हर साल, जब स्कूल में गर्मियों की छुट्टियां होतीं, गुरुदेव का परिवार उनके मृदा-सर्वेक्षण शिविर में शामिल हो जाता। यह जानते हुए कि वह अपने छोटे बच्चों पर उतना ध्यान नहीं दे पाते हैं, गुरुदेव इस तरह की यात्राओं की योजना बड़े ध्यान से बनाते थे। चूंकि रात में शिविरों में ज्यादा कुछ करने के नहीं होता था, इसलिए वह दसियों वीडियो टेप के साथ एक वीसीआर साथ ले जाते, ताकि परिवार फिल्म देखकर अपना समय व्यतीत कर सके। कभी-कभी, वो सभी के लिए पोहा और उपमा जैसे साधारण व्यंजन भी बनाते थे। भोजन, साधारण हो सकता है लेकिन भोजन पकाने वाले हाथ साधारण नहीं थे, ना ही साधारण थी उनकी वो ऊर्जा, जो उनकी आंखों के माध्यम से उसमें प्रवाहित होती थी।
आभा (एक जैव-विद्युत ऊर्जा क्षेत्र जो सभी जीवन रूपों को सम्मिलित करटी है) आँखों के माध्यम से प्रसारित होती है, और आप जो भोजन पका रहे हैं या देख रहे हैं उसे प्रभावित कर सकता है।
गुरुदेव बहुत अच्छे मेजबान थे। वे अपने मेहमानों का स्वागत सादे किन्तु स्वादिष्ट भोजन से किया करते थे। लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ जब उनके लिए कुछ खास पकाया गया हो। जो भी भोजन पकाया जाता वह कृतज्ञतापूर्वक बिना कुछ कहे खा लेते थे।
रेणु जी ने स्वीकार किया कि एक युवा लड़की के रूप में वह उम्मीद करती थी कि गुरुदेव उन आगंतुकों के साथ, जो मदद और उपचार के लिए उनके घर आते थे, कम समय बिताएं और उनके और उनके भाई-बहनों को अधिक समय दें। जब उन्होंने इस बात को लेकर अपनी मां से अपनी निराशा व्यक्त की, तो माताजी ने कहा, “बेटा (बच्चा), अगर आपके पिता के कुछ मिनट किसी को दर्द से राहत दे सकते हैं, तो क्या हमें इसको प्राथमिकता नहीं देनी चाहिए?” इसके बाद रेणु जी ने कभी शिकायत नहीं की। वास्तव में, गुरुदेव की समानुभूति ने रेणुजी को गरीबों के बच्चों को भोजन कराने और प्रवासी मजदूरों के बच्चों को पढ़ाने के लिए प्रेरित किया, जो उनके घर के नजदीक ही काम किया करते थे।
गुरुदेव का संगठनात्मक कौशल भी रेणु जी को काफी आश्चर्यचकित कर देता था, जब वे बड़ी संख्या में लोगों के साथ यात्राएं करते थे, बिना कोई प्रीप्लेनिंग या बजट के। रेणुजी ने उत्तराखंड के एक मनोरम हिल-स्टेशन मसूरी की एक ऐसी यात्रा की, जहां पर उन्होंने एक अमूल्य पाठ सीखा।
एक दिन, गुरुदेव ने इंदु शर्मा नामक एक शिष्य को निर्देश दिया कि वे माताजी सहित सभी को यह बता दें कि बाहर सैर पर जाने से पहले सभी लोग दोपहर का भोजन कर लें। चूंकि इंदु जी रसोई की प्रभारी थीं, उन्होंने लगभग तीस-पैंतीस लोगों के लिए रोटियों के साथ आलू और शिमला मिर्च की सब्जी तैयार की। जब इंदु जी को छोड़कर सबने खाना खाया, तो उन्होंने रेणु जी से कहा कि वे गुरुदेव से भी पूछे कि क्या उनके लिए भी भोजन परोस दिया जाए।
रेणु जी ने जब गुरुदेव को संदेश दिया, तो वे विशिष्ट उद्देश्य से रसोईघर में गये। इंदु जी गुरुदेव के इस फैसले से अंजान थीं। बहुत अनुरोधों के बाद कि इन्दु जी को गुरुदेव के कमरे में उन्हें भोजन परोसने की अनुमति दे दी जाए, गुरुदेव ने जोर देकर कहा कि उन्हें वहीं उसी वक्त भोजन परोसा जाये। झिझकते हुए, इंदु जी ने कढ़ाई (फ्राइंग पैन) से ढक्कन हटाया, जिसमें मात्र थोड़ी-सी सब्जी बची थी। उन्होंने एक थाली में दो रोटियों के साथ सब्जी रखी और उसे गुरुदेव को दे दिया। बदले में, गुरुदेव ने एक और प्लेट उठाई, सब्जी और रोटियों को दो भागों में विभाजित किया और एक प्लेट को इंदु जी देते हुए उनसे अनुरोध किया कि वह भी भोजन ग्रहण करें।
रेणु जी ने देखा खाते समय गुरुदेव के चेहरे पर मुस्कान थी। भोजन समाप्त करने के बाद वे उनकी तरफ मुड़े और कहा, “पुत्तर जेनु खेलान चे मज़ा आग्या ना, ओनु खाणे दा मज़ा नहीं रेहन्दा।”
पंजाबी से इसका हिन्दी में इसका अनुवाद कुछ इस प्रकार है-
जिसे दूसरों को खिलाने में मजा आने लगे,
वह खुद के खाने की परवाह नहीं करता।
पिता के रूप में, गुरुदेव ने अपने बच्चों को यह कभी नहीं बताया कि उनका जीवन कैसा होना चाहिए। वे अपने तरीके से जिए और उन्होंने अपने बच्चों को उन्हें गौर से देखने की इजाजत भी दी। वे उदाहरण देकर उन्हें समझाते, उन्हें अपनी सोच को ऊंचा करने के लिए प्रोत्साहित करते और उन्हें अपने जीवन में समानुभूति और करुणा को स्थान देने की सलाह देते।
गुरुदेव के बेटे, परवेश जी और पुनीत जी, सेवा में शामिल हैं, जबकि उनकी तीन बेटियाँ- रेणु जी, इला जी और अल्का जी विवाहित हैं और भारत के अलग-अलग शहरों में रहते हैं। पिता की ज्ञानपूर्ण सलाहें उनका मार्गदर्शन करने में अब तक कामयाब रही हैं।
गुरुदेव न केवल अपने बच्चों के पिता थे, बल्कि ऐसे अनगिनत बच्चे थे, जिनके साथ उनका पितृवत व्यवहार था। ऐसे ही उनके चार बच्चे गुड़गांव स्थान पर थे- निक्कू, पप्पू, बिट्टू और गग्गू- जो उनकी आज्ञा पालन के लिए हरदम तैयार रहते थे।
इन चारों का गुरुदेव के साथ अद्भुत रिश्ता था। वे उनकी रोजमर्रा की आवश्यकताओं का ध्यान रखते, स्थान पर आए हुए रोगियों के रोस्टर का निरीक्षण करते, और ऐसे ही अनेक आवश्यक अतिरिक्त कार्य करते, जो इस तरह के संस्थान को चलाने के लिए बहुत जरूरी होते थे।
गुरुदेव के प्रति उनका लगाव कुछ इस तरह का था कि समय पर भोजन न करने या अपने स्वास्थ्य की उपेक्षा करने पर वह गुरुदेव को खरी खोटी सुना देते थे। जिस तरह घरेलू मोर्चे पर यह चौकड़ी महागुरु पर हावी होती थी, वे दृश्य अद्भुत होते थे। गुरुदेव उनके सामने जिस तरह एक नम्र पिता की स्वाभाविक भूमिका निभाते, वह निश्चित रूप से आस्कर विनिंग भूमिका हुआ करती थी। गुरुदेव में परिस्थितियों के अनुसार अपनी भूमिका निभाने की अद्भुत कला थी, जिसने उन्हें सबका प्रिय बना दिया था।
बिट्टू जी ने ऐसी ही एक दिलचस्प घटना के बारे में बताया जो गुरुदेव के व्यक्तित्व के इस पहलू पर प्रकाश डालती है। 70 के दशक के अंत में, गुरुदेव बिट्टू जी और उनके दोस्तों के साथ गली क्रिकेट खेल रहे थे। क्रीज पर बल्लेबाजी करते हुए, गुरुदेव ने एक शॉट लगाने का प्रयास किया और चूक गए, क्रिकेट की गेंद उनकी लुंगी में उलझ गई। निश्चित रूप से वह एलबीडब्ल्यू हो गये थे, गेंदबाज ने जोरदार अपील की। लेकिन गुरुदेव ने अपने खिलाफ की गई अपील को दृढ़ता से ठुकराते हुए स्वयं को “नॉट आउट!” घोषित कर किया और क्रीज छोड़ने से मना कर दिया। लुंगी के कारण स्वयं को नॉट आउट घोषित करना सभी के लिए हंसी का सबब था। यह इस बात का सटीक उदाहरण था कि उन्होंने गुरुदेव होते हुए भी अन्य सभी भूमिकाओं को निभाया, जिनकी अपेक्षा उनसे की जाती थी। अपने जीवनकाल में, उन्होंने – एक गुरु की, एक पति की, एक पिता, पुत्र, भाई एवं एक मित्र की – बहुत-सी जज्बाती भूमिकाएं निभाईं, लेकिन हर भूमिका को वे भावनारहित होकर निभाते थे।
लुंगी पहनकर क्रिकेट खेलते गुरुदेव
गुरुदेव क्रिकेटर नहीं थे। सौभाग्य से, उनके पास न तो स्क्वेयर लेग था और न ही डीप लेग, और न ही उन्होंने अपना समय गेंदबाजी में बिताया। लेकिन, उन्होंने आध्यात्मिक लाइन और लेंथ को समझा। उनके कई सबक उनके शिष्यों के लिए बाउंसर थे। लेकिन एक महागुरु की आध्यात्मिक संतान होने के नाते, उन्होंने न केवल आध्यात्मिक टॉस जीतना सीखा, बल्कि अच्छी तरह से खेलकर अपने खेल कौशल के लिए प्रशंसा भी हासिल की!
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