प्रारम्भिक वर्ष

मैत्री संबंध

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हलचल भरी जगह पर बने कुछ नए दोस्त,
जिनकी नजर में वे थे हंसमुख इंसान,
भला कैसे जान पाते वे कि वक्त गुजरने के साथ
उन्नत उत्कृष्ट होगा उनका दोस्त।

1955 में, गुरुदेव शाहदरा, पुरानी दिल्ली में अपने ताया जी के घर रहने चले गए। वे अपने ताया जी पर बोझ नहीं बनना चाहते थे, इसलिए आत्मनिर्भर होने के लिए उन्होंने पेन और टॉफियां बेचीं और यहां तक कि बस कंडक्टर के रूप में भी काम किया। ताया जी के परिवार के आभारों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए गुरुदेव खुद ही उनके घरेलू काम कर दिया करते थे। अक्सर, वह पन्द्रह-बीस किलो वजन की अनाज की बोरियों को अपनी पीठ पर लादकर पिसाने के लिए चक्की पर ले जाते। और यह दूरी वह मंत्रों का जाप करते हुए पूरी करते।

जीवनपर्यन्त, गुरुदेव ने अपने कार्मिक ऋणों को चुकाने के लिए पूरी कर्तव्यनिष्ठा से कार्य किया। अपने ताया जी के परिवार के लिए स्वैच्छिक (अपनी इच्छा से किया जाने वाला) शारीरिक श्रम भी इसी श्रेणी में आता है। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने अपनी किशोर आयु में ही दूसरों द्वारा दिए गए भोजन का सेवन करना बंद कर दिया था। अनावश्यक आभारों से बचने के लिए, वे नियमित रूप से स्वयं ही अपना भोजन पकाते थे – एक साधारण सब्जी, थोड़ा-सा गुड़ और रोटी।

किसी और के पैसे से खरीदे गए नमक और अनाज का सेवन करने वाला व्यक्ति उसका ऋणी हो जाता है, जिसके पैसे से उसे खरीदा गया हो। विशेषकर, नमक का सेवन, जो शरीर के हर हिस्से में फैल जाता है, जिससे दायित्व का प्रमाण बढ़ जाता है। एक आध्यात्मिक पाठ्यक्रम के हिस्से के रूप में, गुरुदेव ने अपने कुछ शिष्यों को दूसरों द्वारा भुगतान किए गए नमक और अनाज के सेवन से परहेज करने की सलाह दी थी।

एक सुबह, जब गुरुदेव पड़ोस में टहल रहे थे, तब उन्होंने देखा कि एक बुजुर्ग महिला अपनी गाय का दूध निकालने की असफल कोशिश कर रही थीं। गुरुदेव ने मदद की पेशकश की। उन्होंने गाय को कई बार प्यार से थपथपाया, तो उसने दूध देना शुरू कर दिया। इसके बाद से, बुजुर्ग महिला के लिए वे भाग्यशाली साबित हो गए। जब भी गाय का दूध निकालना होता, तो वह गुरुदेव की मदद लेतीं। एक दिन बातचीत के दौरान, महिला ने गुरुदेव से पूछा कि वे कहां पढ़ रहे हैं। उन्होंने उसे बताया कि वे इस शहर में नए हैं, और वे ऐसे किसी भी व्यक्ति को नहीं जानते, जो शैक्षणिक मामलों में उनका मार्गदर्शन कर सके। इसलिए, वे छोटे-छोटे काम कर रहे हैं, जिसके खास नतीजे नहीं मिलते। यह सुनकर, बुजुर्ग महिला ने उन्हें मार्गदर्शन के लिए अपने पति से मिलने के लिए कहा। उनके पति पूसा संस्थान के प्रमुख थे, और गुरुदेव ने उनके सुझाव पर भारत सरकार द्वारा स्थापित एक विकास एजेंसी भारत सेवक समाज (बीएसएस) में दो साल के तकनीकी पाठ्यक्रम में दाखिला ले लिया। कोर्स पूरा करने पर, गुरुदेव 1958 में  मृदा-सर्वेक्षणकर्ता के रूप में, कृषि मंत्रालय के तहत, अखिल भारतीय मृदा और भूमि उपयोग सर्वेक्षण, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI), PUSA में शामिल हुए। बीस साल की उम्र में उन्हें 150 रु का अपना पहला वेतन मिला।

काम के दौरान गुरुदेव से मित्रता करने वाले पहले लोगों में से एक किशनलाल नागपाल थे, जिन्हें गुरुदेव नागा कहकर बुलाते थे। यह नियति का खेल था, कि अनजाने में हुई एक त्रुटि के कारण नागपाल की नियुक्ति गुरुदेव के विभाग में ही हो गई। नागपाल जी ने नौकरी का आवेदन-पत्र ‘के.एल. नागपाल’ के नाम से किया था। उन्हें नहीं पता था कि एक प्रभावशाली राजनेता का बेटा, जिसका नाम भी ‘के.एल. नागपाल’ था, ने भी उसी नौकरी के लिए आवेदन किया है। नौकरी देने का निर्णय लेते समय, विभाग के अधिकारियों ने अनजाने में यह मान लिया कि नागपाल जी राजनेता के बेटे हैं और उन्हें नौकरी दे दी, जिससे नागपाल जी का परिचय उस व्यक्ति से हुआ, जो उनके जीवन की दिशा बदलने वाला था।

जब गुरुदेव को ठहरने के लिए जगह की आवश्यकता थी, तो उन्होंने नागपाल जी से पूछा कि क्या वे उनके अपार्टमेंट में रह सकते हैं। नागपाल जी, अपने मित्र एवं मकान मालिक, द्वारकानाथ जी के साथ दिल्ली में पहाड़गंज के भीड़-भाड़ भरे इलाके में स्थित 120 वर्ग फुट के एक छोटे-से कमरे में रहते थे। द्वारकानाथ जी केन्द्रीय निर्माण विभाग (CWD) में काम करते थे। द्वारकानाथ जी ने गुरुदेव से मिलने पर जोर दिया और कहा कि अगर वे उन्हें ठीक लगे, तो वे उन्हें अपना रूममेट बना लेंगे। कुछ मिनटों की मुलाकात में द्वारकनाथ जी को अपने सामने बैठे युवक के साथ एक जुड़ाव महसूस हुआ। उन्होंने बताया, “जब मैंने पहली बार गुरुदेव से बात करना शुरू की, तो मैं बहुत प्रभावित हुआ। वे बुद्धिमान थे और सबकुछ समझते थे। उनका बात करने का तरीका अद्भुत था, और मुझे लगा कि हमारी अच्छी निभेगी। इसलिए, मैं सहमत हो गया और हम साथ रहने लगे।” एक व्यवस्था की गई जिसके तहत भोजन की व्यवस्था के लिए प्रत्येक को हर महीना 30 रुपए देना था।

गुरुदेव की अल्प आय उन्हें ज्यादा खर्च करने की अनुमति नहीं देती थी। चूंकि अपनी नौकरी के कारण उन्हें दूरदराज के स्थानों पर जाना पड़ता था, जहां उन्हें अक्सर अपने लिए खाना खुद ही पकाना पड़ता था, इसीलिए गुरुदेव पाक कौशल में प्रवीण हो गए थे। तीनों दोस्त नाश्ते और दोपहर के भोजन में गुरुदेव या नागपाल जी द्वारा बनाए गए सादे पराठे खाते थे। कभी-कभी, रात के भोजन के लिए वे अपने अपार्टमेंट के पास के ढाबे से पकोड़े ले आते। यद्यपि, ज्यादातर रात के खाने में पिछली रात की बची हुई दाल, दही और चावल ही होते थे।

गुरुदेव छोटी-छोटी चीजों में खुशियां ढूंढ लेते थे। हर सप्ताहांत, वे अपने साथियों के साथ दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में घूमने जाने की योजना बनाते थे। सिने प्रेमी होने के नाते, वे शीला या खन्ना सिनेमा में लगने वाली नई फिल्मों के देर रात के शो देखने जाते थे। गुरुदेव की तरह नागपाल जी को भी फिल्में पसंद थीं, लेकिन द्वारकानाथ जी को उन्हें अपने साथ चलने के लिए मज़बूर करना पड़ता था। द्वारकानाथ जी को सुबह जल्दी उठने की आदत थी, अतः वे फिल्म के दौरान सो जाते थे। गुरुदेव ने इस असमंजसपूर्ण स्थिति के लिए एक अनोखा समाधान खोजा। द्वारकानाथ जी को गुरुदेव और नागपाल जी के बीच बैठने पर मजबूर किया जाता, ताकि नींद आने पर उन्हें दोनों तरफ से जगाया जा सके!

Gurudev with Friends

दिल्ली की कुतुबमीनार पर गुरदेव (दाएं) नागपाल जी (बाएं) और बीच में द्वारकानाथ जी

लोगों को जगाए रखने के अपरंपरागत तरीकों का आविष्कार करने के अलावा, गुरुदेव की खुशमिजाजी सभी को आनंदित करती थी। वे अपने दोस्तों से उन लोगों की बातें करते और नकल उतारते थे, जिन्हें वे जानते थे। लोगों को उनका साथ बहुत पसंद था। द्वारकानाथ जी के बड़े भाई तो यह तक कहते थे कि वे गुरुदेव की उपस्थिति में ही अपने छोटे भाई से मिलने आएंगे।

गुरुदेव, द्वारकानाथ जी और नागपाल जी की गहरी मित्रता संक्रामक थी। जल्द ही, जैन साहब, एक सहकर्मी, और उनके पड़ोसी कुंदनलाल साहनी भी इस टोली में शामिल हो गए। पांचों दोस्त द्वारकानाथ जी के छोटे से अपार्टमेंट में पकोड़े खाते और हंसी-मजाक में अपना समय बिताया करते। जब कभी उनका मन लता, मुकेश और रफी की भावपूर्ण आवाजें सुनने का होता, तो गुरुदेव का जादुई स्पर्श ही काम आता। द्वारकानाथ जी के पास एक पुराना रेडियो था, जिसके अस्थि-पिंजर ढीले पड़ गए थे। लेकिन जब गुरुदेव उसे थपाथपाते, तो वह उनके दोस्तों के मनोरंजन के लिए बजना शुरू हो जाता!

यह गुरुदेव की सौहार्दता ही थी कि कुंदनलाल जी और द्वारकानाथ जी ऑफिस से छुट्टी लेकर हिमाचल प्रदेश में उनके शिविरों में उनके साथ समय बिताने के लिए जाते थे। एक मेजबान के रूप में गुरुदेव इस बात का अतिरिक्त ध्यान रखते थे कि उनके मेहमानों को किसी प्रकार की तकलीफ न हो। शिविर में मन बहलाने के लिए वे शतरंज या ताश खेलते थे, जिसमें गुरुदेव हमेशा जीतते थे। यह देखकर कि गुरुदेव का भाग्य हमेशा उनका साथ देता है, उनके मित्र उनसे अपनी ओर से खेलने का अनुरोध करते। गुरुदेव उनके पक्ष में खेलते, और उन्हें जीत दिलाते। यद्यपि, महागुरु बनने के बाद, गुरुदेव जुए और सट्टेबाजी के सख्त विरुद्ध थे।

अत्यन्त उदार व्यक्ति होने के नाते, गुरुदेव लोगों की मदद करने से पहले बहुत सोच-विचार नहीं करते थे। यद्यपि, अक्सर उनकी दयालुता का फायदा उठाया जाता था। द्वारकानाथ जी ने जब इस ओर उनका ध्यान आकृष्ट किया, तो गुरुदेव ने कहा, “मैं जानता हूं। लेकिन जब कोई मुझसे मदद मांगता है, तो मैं उनके इरादों को जानते हुए भी उनकी मदद से इंकार नहीं कर सकता।”

गुरुदेव के प्रफुल्लित व्यक्तित्व के बावजूद, उनके रूममेट गुरुदेव के आध्यात्मिक झुकाव के प्रति अनभिज्ञ नहीं थे, क्योंकि जब कभी मध्यरात्रि में उनकी नींद खुल जाती तो वे पाते कि गुरुदेव कंबल लपेटे ध्यान मुद्रा में लीन हैं। द्वारकानाथ जी ने ऐसी अनेक घटनाओं का उल्लेख किया, जो गुरुदेव के असाधारण व्यक्तित्व की पुष्टि करती हैं।

द्वारकानाथ जी और नागपाल जी शिव भक्त थे। वे गुरुदेव को अपने साथ अपार्टमेंट के पास स्थित शिव मंदिर चलने को कहते थे। जब उनके दोस्त भक्ति भाव से मंदिर में प्रवेश करते, तो गुरुदेव मंदिर के बाहर खड़े रहकर उनका इंतजार करने पर जोर देते। उनके रूममेट्स को यह अजीब लगता, क्योंकि वे जानते थे कि गुरुदेव शिव-मंत्रों का जाप करते हैं।

अपने व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर मैं यह जान सका कि गुरुदेव ने कभी मंदिरों में प्रवेश क्यों नहीं किया? मैं और गुरुदेव दिल्ली आने के लिए मध्य प्रदेश के बीना स्टेशन पर गाड़ी का इंतजार कर रहे थे, भले ही गुरुदेव मेरे बगल में बैठे थे, पर अति आध्यात्मिकता से प्रेरित होकर, मैंने सड़क किनारे स्थित एक पेड़ के नीचे बने छोटे से मंदिर में दीया जलाने का फैसला किया। जैसे ही मैंने ज्योति जलाई, मेरे शरीर में ऐंठन हुई क्योंकि मैंने अनजाने में अपने अंदर उस मंदिर की शक्ति को आकृष्ट किया। अगर यह एक बड़ा मंदिर होता, तो भगवान जाने क्या होता! संभवतः गुरुदेव शिव मंदिरों के स्वामित्व की भावना से परिचित थे और वे नहीं चाहते थे कि वे मंदिर की ऊर्जा को सम्मोहित करे और उसकी ऊर्जा का संतुलन बिगड़े।

 

द्वारकानाथ जी ने यह भी देखा कि गुरुदेव की भविष्यवाणी सच होती थीं। एक बार उन्होंने और नागपाल जी ने एक दिन के लिए आगरा जाने का फैसला किया। जाने से एक दिन पहले उन्होंने गुरुदेव को इसके बारे में सूचित किया, उनको छोड़कर जाने की बात ने गुरुदेव को परेशान कर दिया। उन्होंने अनायास ही कह दिया कि उनके बिना वे आगरा नहीं जा पाएंगे। चूंकि यात्रा की तैयारियां पूरी हो चुकी थीं, यहां तक कि बर्थ के आरक्षण की भी पुष्टि हो गई थी, इसलिए द्वारकानाथ जी को लगा कि वे लोग गुरुदेव को साथ नहीं ले जा रहे हैं इसलिए गुरुदेव नाराजगी में ये कह रहे हैं।

अगली सुबह दोनों समय से स्टेशन पहुंच गए, लेकिन वहां जाकर पता चला कि गाड़ी पांच घंटे विलम्ब से आएगी। द्वारकानाथ जी और नागपाल जी को पता था कि वे अगले दिन काम पर नहीं लौट पाएंगे, इसलिए वे वापस घर लौट आए। द्वारकानाथ जी को याद है कि गुरुदेव ने उनका स्वागत मुस्कराहट और अपनी पसंदीदा पंजाबी गालियों के साथ किया था।

इन अजीब घटनाओं के बावजूद, गुरुदेव के दोस्तों को एक हंसमुख और सिगरेट पीने वाले दोस्त को गंभीर अध्यात्मवादी के रूप में स्वीकारने में दिक्कत हो रही थी। वास्तव में, जब गुरुदेव ने जैन साहब को सूचित किया कि वो भविष्य में कई लोगों के गुरु बनेंगे, तो संभावित स्थिति की कल्पना करके वो काफी हंसे। परिचय के परदे के कारण जैन साहब सत्य नहीं स्वीकार पाए। पर, विधि का विधान कुछ और ही था। वर्षों बाद, गुरुदेव के महागुरु बनने के बाद, द्वारकानाथ जी और नागपाल जी अपने पूर्व मित्र के भक्त बन गए, जबकि जैन साहब उनके सबसे प्रभावशाली शिष्यों में से एक बने।

गुरुदेव की जादुई सक्षमता, गायों को दूध देने, रेडियो को बजने एवं भविष्य में हमारे कान खींचते हुए उनकी धुनों पर गाने के लिए मजबूर करने के लिए भी बहुत काम आई!

महागुरु के रूप में अपनी यात्रा के वर्षों में,गुरुदेव ने बहुत संयम बरता और अंततः संगीत और सिनेमा के अपने शौक को नियंत्रित किया। गहन आत्म-अवलोकन के माध्यम से, गुरुदेव ने अपनी इन्द्रियों पर काबू पा लिया। महागुरु के रूप में, उन्होंने हमें भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया। फिर भी, वह यह भी कहते थे, “एक ऐब रहना चाहिये।” हम में से कई लोगों में यह दोष सिगरेट या तंबाकू का सेवन था। ऐसा करने में शायद उनका ये उद्देश्य था कि हम अपना ध्यान उस ऐब से ज्यादा संगीन (खतरनाक) आदतों, कमजोरियों और दुर्गुणों को खत्म करने में लगा सकें। यह उन नकारात्मक दबावों में ऊर्जा संतुलन और आहुति का काम करता है, जो हमारे आध्यात्मिक मार्ग में बाधाएं पैदा कर सकता है। और जब हम गंभीर दोषों से मुक्त होने में सफल रहे, तब उन्होंने हमसे अपने अंतिम ऐब को भी त्यागने की इच्छा व्यक्त की।