प्रारम्भिक वर्ष

आध्यात्मिक शुरुआत

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कही और सुनी गई बातों के पीछे का सच जानने की चाहत में,
उन्होंने लंबा समय बिताया विद्वत जनों की संगति में,
ताकि कर सकें आत्मसात उस सत्य को।

आध्यात्मिकता में गुरुदेव की रुचि के कारण, वे अपने घर से थोड़ी दूर स्थित शीतला माता के मंदिर में आने वाले साधुओं, फकीरों और गूढ़ ज्ञान रखने वालों के साथ समय बिताने के लिए स्कूल से भाग आते थे। इस दौरान वे जिन लोगों से मिले, उनमें से एक दसुआ के सीताराम जी थे, जो उनके प्रारंभिक आध्यात्मिक उपदेशक बने।

गुरुदेव ने दसुआ के सीताराम जी के मार्गदर्शन में कई सिद्धियां प्राप्त कीं, जिससे उनमें उन आध्यात्मिक कार्यों को करने की क्षमता आ गई जिसे अन्य आध्यात्मिक गुरु कर सकते थे।। यद्यपि, ये क्षमताएं, एक महागुरु के रूप में उन्हें प्राप्त शक्तियों की तुलना में औसत दर्जे की थीं, लेकिन इससे उन्हें आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा मिली और उनके आध्यात्मिक उत्थान का मार्ग प्रशस्त हुआ। संयोग से, उन्होंने महागुरु बनने से पहले इन सभी सिद्धियों को त्याग दिया था।

एक युवा अध्यात्मवादी के रूप में, गुरुदेव हर गुरुवार को गांव के बाहरी इलाके में स्थित सादक शाह वली की दरगाह पर चिराग जलाते थे। इस क्षेत्र में भारी वर्षा एक सामान्य घटना थी, और गांव में बाढ़ से आम जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता था। एक गुरुवार को, जब बारिश के चलते उनका गांव बाढ़ से प्रभावित था, गुरुदेव दरगाह पर चिराग जलाने के लिए घुटने भर पानी से होकर गए। चिराग को लगातार बारिश और तेज हवाओं से बुझने से बचाने के लिए उन्होंने अपने शरीर को ढाल बना दिया। बहुत कम उम्र में ही उनमें आध्यात्मिक अनुशासन आने लगा था।

Gurudev walks to a dargah

घुटने तक पानी से होकर दरगाह पर चिराग जलाने जाते गुरुदेव

इसी दौरान गुरुदेव में प्राणी मात्र के लिए करुणा की भावना आ गई थी। उनके पिता जी, उन्हें जेब खर्च के लिए कुछ पैसे देते थे, उसमें से वे पशु-पक्षियों और मछलियों के लिए भोजन खरीदा करते थे। हरिआना के मोहन सिंह चीरा, जो बाद में गुरुदेव के शिष्य बने, याद करते हैं कि गुरुदेव जेब खर्च का बाकी हिस्सा अपने दोस्तों को खिलाने-पिलाने पर खर्च कर दिया करते थे। उन्होंने शायद ही कभी खुद पर पैसा खर्च किया हो। एक किशोर के रूप में भी, गुरुदेव बहुत बड़े दिल वाले इंसान थे! बाद के वर्षों में, अपने से ज्यादा दूसरों को अहमियत देने की यह आदत उनके व्यक्तित्व की एक प्रभावशाली विशेषता बन गई।

यद्यपि गुरुदेव को अपनी आध्यात्मिक खोज का मूल्य अपनी पढ़ाई से चुकाना पड़ा। उनके माता-पिता को हमेशा उनकी शाला के शिक्षकों से पढ़ाई में उनकी अरूचि की शिकायतें मिलती थीं। उन्होंने हर तरह के प्रयास किए, लेकिन सफलता नहीं मिली। गुरुदेव के माता-पिता को उस समय आश्चर्य और राहत की एक अजीब अनुभूति हुई, जब गुरुदेव स्कूल में औसत अंकों से उत्तीर्ण हुए थे। इसके बाद उन्होंने गुरुदेव को ऐसी जगह भेजने का निर्णय लिया, जहां पेशेवर अवसर उपलब्ध हों और जहां किसी तरह की आध्यात्मिक बाधा ना हो। उन्होंने गुरुदेव को दिल्ली भेजा, जहां से न केवल एक पेशेवर के तौर पर गुरुदेव के जीवन की शुरुआत हुई, बल्कि उन्होंने अपनी आध्यात्मिक यात्रा में भी प्रगति की।