दर्शन एवं अभ्यास

इंद्रियों से परे

गुरुदेव ने हमें अपनी इंद्रियों का प्रबंधन करने का सुझाव दिया, ताकि हमारी “आत्म की भावना” अपने अलौकिक-आत्म/परमात्मा से अलग न हो, बल्कि इससे सीधी जुड़ी रहे।

आपको अपने सत्य स्वरूप को समझने के लिए, पहले समझना होगा कि सत्य क्या नहीं है। और जो सत्य प्रतीत होता है, वह सत्य नहीं है, इसे अक्सर माया कहा जाता है।

किसी चीज़ को देखने, सुनने, महसूस करने या इंद्रियों के माध्यम से अवगत होने की क्षमता को धारणा के रूप में समझा जाता है – ऐसी योग्यताएं जिससे शरीर को बाह्य जगत का ज्ञान होता है। मनुष्यों में, ये इंद्रियां स्पर्श, घ्राण, रसना, नेत्र और श्रवण हैं। देखने में ये इंद्रियां स्वतंत्र रूप से काम करती प्रतीत होती हैं, लेकिन उनका आपस में एक दूसरे से बहुत निकट का संबंध होता है क्योंकि वे सब मिलकर मस्तिष्क को हमारे चारों ओर की दुनिया को समझने में सक्षम बनाती हैं।

प्रत्येक जीव में, मस्तिष्क खोपड़ी में शांति से बैठता है और बाहरी दुनिया के साथ सीधे सम्पर्क नहीं करता। आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा से प्राप्त विवरण की यह केवल संगणकीय उपकरण की भांति व्याख्या करता है। लगभग 100 बिलियन कोशिकाओं / न्यूरॉन्स का मस्तिष्क का घना नेटवर्क, इन अंगों से जो भी अनुभव किया जाता है, उसका विद्युत रसायनिक संकेतों में अनुवाद कर देता है। हर क्षण, प्रत्येक न्यूरॉन दसियों या सैकड़ों विद्युत तरंगों को अन्य न्यूरॉन्स को भेजता है। मस्तिष्क, संसार का ज्ञान कराने वाले न्यूरोनल सिग्नल से निकलने वाले इलेक्ट्रोकेमिकल पैटर्न की व्याख्या करता है। इसी तरह यह एक साथ विभिन्न संवेदी अंगों से प्राप्त संकेतों को इलेक्ट्रोकेमिकल पैटर्न के रूप में संसाधित करता है, जिससे हम अपनी वैश्विक दृष्टि – अपनी वास्तविकता को समझ पाते हैं।

तथ्य यह है कि आपके मस्तिष्क को न तो इसकी जानकारी होती है और न ही वह इस बात की परवाह करता है कि उसे यह जानकारी कहां से मिलती है। यह केवल मिलने वाले डेटा की व्याख्या करता है, जिससे हमें यह समझने में मदद मिलती है कि जो हम देखते हैं वह वास्तव में बाह्य न होकर, हमारी व्यक्तिगत दुनिया का एक आंतरिक मॉडल होता है।

अपने आसपास की दुनिया को समझने के लिए जानवरों की विभिन्न प्रजातियों में भी भिन्न रिसेप्टर्स होते हैं। कुछ जानवरों में पारंपरिक पांच इंद्रियों में से एक या अधिक की कमी हो सकती है, जबकि कुछ दुनिया को उस तरह से समझ सकते हैं जिस तरह मनुष्य नहीं समझ सकते। कुछ प्रजातियां विद्युत और चुंबकीय क्षेत्रों को महसूस कर सकती हैं और पानी के दबाव और धाराओं का पता लगा सकती हैं। उदाहरण के लिए, ड्रैगनफ्लाई में दूरबीन दृष्टि है और एक कीट लाल प्रकाश नहीं देख सकता जबकि मनुष्य यूवी प्रकाश नहीं देख सकते हैं। इसलिए, प्रत्येक के पास दुनिया का एक अलग दृष्टिकोण होगा। प्रकृति के इसी तरह के उदाहरणों से पता चलता है कि हमारी शारीरिक एवं मानसिक संरचना ने हमारे संवेदी इनपुट को कितना सीमित रखा है।

इसलिए आपको दिखने वाला सत्य सार्वभौमिक सत्य नहीं है, आपका अपना सत्य है। ब्रह्माण्डीय दृष्टिकोण से जुड़ने के लिए आपको अपने सीमित दृष्टिकोण से बाहर आना होगा।

इन्द्रियों का प्रबंधन

गुरुदेव ने लोगों के गुस्से को भड़काकर, अपनी प्रतिक्रियात्मक भाषा और स्वभाव को नियंत्रित करना सीखा। आईएआरआई में अपनी नौकरी के शुरुआती वर्षों में, वह अपने कार्यालय के बाहर गलियारे में बैठकर राहगीरों को अपशब्द कहते। फिर उनकी नकारात्मक प्रतिक्रिया का इंतजार करते और जब वह ऐसा करते, तो गुरुदेव मुस्कुराते। गुस्से को उकसाकर अपने स्वभाव के लचीलेपन को जांचने का यह उनका तरीका था। (पुनश्च: मैं इस दृष्टिकोण को एक सिफारिश के बजाय अवलोकन के रूप में साझा कर रहा हूं)।

इतिहास अनेक शक्तिशाली अध्यात्मवादियों के क्रोध का गवाह है। संभवतः कठिन तपस्या के कारण उनके शरीर में जागृत होने वाला अग्नि तत्व उनके अत्यधिक क्रोध का जिम्मेदार है। अपने क्रोध को नियंत्रित करके, गुरुदेव ने अपने मानस से एक शक्तिशाली भाव को मिटा दिया। भावनाएं कम करिए, अधिक स्थिर मन पाइए।

युवावस्था में फिल्म स्टार बनने की चाहत रखने वाले से सुर्खियों से दूर रहने वाले तक, गुरुदेव का इंद्रियों से मुक्ति के अभ्यास का एक लंबा इतिहास था।

नेत्र इंद्रिय आकर्षण, स्पर्श इन्द्रिय वासना की भावना जन्म लेती है। विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण से बचने के लिए महागुरु ने अत्यन्त साधारण सूत्र निष्पादित किया था। उन्होंने सुझाव दिया कि हम हर “आकर्षक” महिला की कल्पना “गुड़िया” (बच्चे) और “बुढ़िया” (वृद्ध) के रूप में करें ताकि हम उनके प्रति कितने आकर्षित हैं, इसका सही-सही आंकलन कर सकें! मैंने इसे आगे बढ़ाते हुए मिलने वाली हर महिला को कंकाल के रूप में देखना शुरू किया। और जल्द ही, इस अभ्यास ने न केवल किसी अप्रिय इच्छा को कम कर दिया, बल्कि मुझे यह एहसास दिलाया कि सुंदरता सचमुच देखने वाले की नज़र में होती है!

महागुरु ने एक बार बताया था कि जब विकसित अध्यात्मवादी की मृत्यु होती है, तो आगे की यात्रा के दौरान उनकी आत्माएं एक दोराहे पर पहुंचती हैं, जहां से एक रास्ता सुंदर निचले आयामों (लोकों) की ओर जाता है, जबकि दूसरा मार्ग साधारण दिखने वाले उच्च लोकों की ओर जाता है। चूंकि सुंदरता का आकर्षण आत्मा को निचले दायरे में ले जा सकता है, इसलिए सौंदर्य के जाल से दूर होना फायदेमंद है!

गंध की भावना को जीतने के लिए, गुरुदेव ने अघोर विद्या की कुछ बातें आत्मसात की, उन्होंने हमें निर्देश दिए कि अगर हम दुर्गंध के प्रति उदासीन होना चाहते हैं तो हमें सुगंध के प्रति उदासीनता विकसित करना सीखना होगा। काश, अजमेर में पढ़ते समय मैंने यह तरकीब सीखी होती, क्योंकि मेरे स्कूल के शौचालय इस तकनीक का अभ्यास करने के लिए सही स्थान थे। अंततः जब मैंने दुर्गंध और गंध के लिए सहिष्णुता और अपरिग्रह का अभ्यास किया, तब मैंने कोलोन और इत्र का भी त्याग कर दिया।

इंद्रिय प्रबंधन ‘अच्छा’, ‘बुरा’, ‘सही’, ‘गलत’, और ‘दोहरेपन’ की अन्य धारणाओं को ध्वस्त कर देता है।

एक बार गुरुदेव कुछ शिष्यों के साथ अपने एक सहयोगी के घर गए। चूंकि सहयोगी और उनकी पत्नी घर पर नहीं थे, इसलिए उनकी आठ साल की बेटी ने उनके लिए चाय बनाने की पेशकश की। उसकी भावनाओं का सम्मान करते हुए, गुरुदेव सहमत हो गए। जब वह चाय देने आई, तो गुरुदेव ने चाय को अभिमंत्रित किया और अपने शिष्यों को चाय का कप दे दिया। जब चाय पीते हुए वह बच्ची के साथ बातचीत कर रहे थे, उनके साथ आए कुछ शिष्यों ने चाय के कुछ घूंट लेकर, बाकी चाय को कपों में छोड़ दिया। चूंकि लड़की ने केरोसिन के चूल्हे पर चाय बनाई थी, इसलिए उसमें मिट्टी के तेल की बू आ रही थी और वह पीने योग्य नहीं थी। सहयोगी के घर से निकलने पर, महागुरु ने अपने शिष्यों को लताड़ा! कल्पना करें कि वह कितने नासमझ थे कि जिस चाय की प्याली को उनके गुरु का आशीर्वाद मिला हुआ था, उसकी उन्होंने अवहेलना कर दी, केवल इसलिए कि उसमें मिट्टी के तेल की बू आ रही थी!

एक छोटी बच्ची के द्वारा बनाई गई चाय की चुस्की लेते गुरुदेव

गुरुदेव की जीवन यात्रा को समझने के दौरान मैंने यह पाया कि किस प्रकार शुरुआती वर्षों से लेकर महागुरु बनने तक उनकी आदतों और दृष्टिकोणों में बदलाव हुआ। इस बिंदु को स्पष्ट करने के लिए, मैं आहार – स्वादेन्द्रिय को लेकर उनके विचारों के बारे में बात करना चाहूंगा।

कई बार, गुरुदेव रात का भोजन किए बिना सो जाते थे। इसके बारे में पूछे जाने पर, उन्होंने यूं ही स्वीकार किया, यदि उनका कोई भी भक्त किसी रात बिना भोजन किए सो जाता है, तो वह भी उस रात अपना भोजन नहीं करेंगे। शायद यह संकल्प शक्ति का प्रयोग करके उन्हें अपना भोजन देने का उनका तरीका था। उन्होंने सप्ताह में एक बार उपवास करने की भी सिफारिश की ताकि शारीरिक कारोबार सही ढंग से चल सके।

जवानी में खाने के शौक से लेकर, मृदा सर्वेक्षणकर्ता के रूप में दाल, रोटी, दही और यदा-कदा पकोड़ों पर रहने वाले, अक्सर अपने मित्रों, सहकर्मियों और शिष्यों के लिए भोजन बनाने वाले, एकत्रित सभी लोगों के भोजन कर लेने के बाद अंतिम व्यक्ति के रूप में भोजन करने वाले, स्थान में लंगर का आयोजन कर लोगों को मुफ्त भोजन वितरित करने वाले, महागुरु ने अन्न या भोजन को बहुत सम्मान दिया।

गुरुदेव ने स्वादेन्द्रिय को इस तरीके से नियंत्रित किया था कि वे न तो भोजन को लेकर लालायित थे और न ही अत्यधिक भोजन करते थे। पूरी तरह से शाकाहारी और सात्विक, वह सहजता से तरल पदार्थों पर रह जाते थे। उन दुपहरियों में, जब वह साइकिल से अपने कार्यालय के नजदीक के घरों में उन जरूरतमंद लोगों से मिलने जाते जिन्हें उनकी मदद की जरूरत होती थी, तो उनके दोपहर के भोजन में सिर्फ लस्सी (छाछ) का गिलास होता था। ज्यादातर सुबह, उनका नाश्ता नींबू पानी था। महाशिवरात्रि जैसे अवसरों पर, वे तब तक खाना नहीं खाते, जब तक वे कतार के अंतिम व्यक्ति से नहीं मिल लेते। इस प्रक्रिया में कहीं भी दो से तीन दिन लग जाते थे। उनकी बेटी ने प्यार से उन्हें यह कहते हुए याद किया कि वह जो खुद खाने से पहले दूसरों को खिलाना सीखता है, भोजन की इच्छा को पार कर जाता है। महागुरु ने अन्न दान की सेवा को अमूल्य माना।

श्रवणेन्द्रिय हमें लोगों से जोड़ती है, लोगों से संवाद बनाने में हमारी मदद करती है जिसे कोई अन्य इन्द्रिय नहीं कर सकती। हेलेनकेलर, जो अंधी और बहरी थी, ने अपने बयान में सुनने के महत्व को कुछ इस प्रकार बताया है, “अंधापन हमें चीजों से काट देता है, लेकिन बधिरता हमें लोगों से दूर कर देती है”। हम सुनी हुई बातों का जवाब हमेशा शब्दों के माध्यम देते हैं। श्रवणेन्द्रिय पर नियंत्रण का अभ्यास करने का एक तरीका है, विवेक की शक्ति को विकसित करना; सहजता से सुनकर चुप रह जाना और सुनी हुई हर बात का जवाब न देना। गुरुदेव ने हमें हमेशा कहा कि हम ऐसी किसी चीज़ पर विश्वास न करें, जिसे हमने स्वयं देखा और सुना न हो। इस आज्ञा के साथ, उन्होंने हल्की बातों और गपशप को हतोत्साहित किया।

गुरुदेव की विवेक शक्ति की एक दिलचस्प कहानी है। एक बार जब उनकी उपस्थिति में एक शिष्य ने गर्व से अपनी सफलता की डींग मारनी शुरू कर दी और महागुरु की सलाह को खारिज कर दिया क्योंकि वह गुरु की बताई हुई “गलत” धारणाओं को ठीक करना चाहता था, उसे नहीं पता था कि वह एक अप्रिय स्थिति का सामना करने जा रहा था। समझदार गुरु, जिसने शायद ही कभी अपनी शक्तियां प्रदर्शित की हों, ने कुछ ऐसा किया कि कमरे में मौजूद अन्य लोग स्तब्ध रह गए। उन्होंने बिट्टूजी को अपने बेडसाइड अलमारी की चाबी लाने को कहा। बिट्टूजी को उस अलमारी के लॉकर से चार खाली ऑडियो कैसेटों के सेट की सील हटाने का निर्देश दिया। कैसेट्स की पैकेजिंग को हटाने के बाद, बिट्टूजी को तीसरे कैसेट को प्ले करने के लिए कहा गया। जब उन्होंने ऐसा किया, तो कमरे में मौजूद लोगों ने शिष्य की शब्दशः बातचीत में उसी “गलती” के बारे में डींग मारते हुए सुना जिसे उसने अपने गुरु के सामने मानने से इनकार कर दिया था! वाह, बहुत खूब!

बिट्टू जी से खाली ऑडियो कैसेट बजाने का आग्रह करते गुरुदेव।

गुरुदेव के समय में, संगीतप्रेमियों के आनंद का एक माध्यम कैसेट प्लेयर और रेडियो था। महान गुरु को संगीत सुनने का भी शौक था, खासकर मोहम्मद रफी को। कार की सवारी के दौरान उन्हें रेडियो सुनना पसंद था, लेकिन धीरे-धीरे समय के साथ, मैंने संगीत में उनकी रुचि कम होते देखी। एक चरण ऐसा भी आया जहां वह अच्छे संगीत की सराहना तो करते थे लेकिन इसके माधुर्य में नहीं डूबते थे।

एक साथ काम करने वाली कई इंद्रियां भावनाओं की एक श्रृंखला को जन्म देती हैं, जिससे बहुत सारी क्रियाएं होती हैं। गुरुदेव ने अपनी इंद्रियों का प्रबंधन उनका शमन करके नहीं, बल्कि उनकी प्रतिक्रियाओं को देखते हुए किया। इस तरह, इस संवेदी नाटक में डूब जाने वाले अभिनेता की बजाय वह इसके पर्यवेक्षक बन गए। पर्यवेक्षक होने के नाते, महागुरु तुरंत अपनी इच्छानुसार अपनी इंद्रियों को नियंत्रित करने और हेरफेर करने का एक खाका तैयार कर लेते थे। इस तरह वह जीवन के उस मुकाम पर पहुंच गए, जहां उन्होंने भावनात्मक भूमिकाएं निभाईं बजाय उन्हें महसूस करने के।

मस्तिष्क का लचीलापन

मस्तिष्क अनुसंधान से पता चला है कि हम शारीरिक रूप से मस्तिष्क संरचना को बदल कर,  इसकी कार्यक्षमता में सुधार कर सकते हैं, इस क्षमता को न्यूरोप्लास्टिक कहा जाता है। इसलिए, जब मस्तिष्क एक संवेदी साधन के योगदान से वंचित होता है, तो यह अन्य इंद्रियों के समर्थन और संवर्धन से खुद को फिर से दुरुस्त कर लेता है।

किसी भी इंद्रिय बोध के अभाव या नुकसान की भरपाई के लिए मस्तिष्क दुरुस्त या पुनर्गठित होकर यह सुनिश्चित करता है कि नष्ट हुई इन्द्रिय को संभालने के लिए समर्पित मस्तिष्क के क्षेत्र अप्रयुक्त न रहें, इसके लिए वह दूसरी इंद्रियों को सक्रिय करने के लिए तैयार हो जाता है। इस तरह की रिमैपिंग में कभी-कभी मौजूदा तंत्रिका पथों के अलावा नए पैदा हुए न्यूरॉन्स भी शामिल हो सकते हैं। नतीजतन, समय के साथ, एक इन्द्रिय का नुकसान दूसरे को अधिक समृद्ध बना सकता है।

एक बार देहरादून से यात्रा करते समय, गुरुदेव ने मुझसे कभी उस शहर में बधिरों के लिए एक स्कूल खोलने के लिए कहा। लगभग एक दशक बाद, मैंने यह स्कूल खोला। बधिरों के साथ काम करने और उनकी दुनिया का हिस्सा बनने के लिए के लिए मुझे उनकी संस्कृति से अवगत कराया गया। मैंने देखा है कि वे हस्त कौशल और अपने हाथों के इस्तेमाल में अत्यन्त दक्ष हैं। उनकी एकाग्रता का स्तर बहुत अधिक है क्योंकि वे ध्वनि से शायद ही कभी विचलित होते हैं। सुनने की क्षमता नष्ट होने से उनका स्पर्श का बोध नाटकीय रूप से बढ़ गया था।

महागुरु ने सुझाव दिया कि जब तक हम दूसरे दोषों को नियंत्रित या संतुलित नहीं कर लेते, तब तक हमें एक दोष को बने रहने देना चाहिए। अंत में, सभी दोषों का त्याग कर देना चाहिए। महागुरु के सरल सुझाव में संवेदी लचीलेपन के रहस्य छिपे हुए थे। इसे मैं अपने उदाहरण से समझाता हूं। जब मैंने संवेदी नियंत्रण का अभ्यास शुरू किया, तो मैं जिस कमजोर कड़ी को छोड़ना चाहता था वह केवल एक आदत नहीं, बल्कि स्वादेन्द्रिय थी। वर्षों से, आतिथ्य व्यवसाय में होने के बावजूद मैंने इस पर नियंत्रण का लगातार प्रयास किया है। लेकिन किसी विशेष अवसर पर चॉकलेट और पनीर खाना मुझे अच्छा लगता है! गुरुदेव के विपरीत, जिनके लिए अपनी इंद्रियों को संतुलित करना बहुत आसान था, मेरे लिए तो यह प्रक्रिया अब भी जारी है।

मस्तिष्क

मस्तिष्क की अनूठी परिवर्तनकारी क्षमता ना सिर्फ बाह्य बल्कि आंतरिक उत्तेजनाओं के निवेश के कारण भी होती है। उदाहरण के लिए, लंबे समय तक मंत्र जप से आपकी संकल्प शक्ति बढ़ती है और यह आपके मस्तिष्क की संरचना को भी बदलती है।

मस्तिष्क एक बहुसंवेदी अंग है, जो लगातार विभिन्न इंद्रियों से प्राप्त जानकारियों को मिश्रित करता है। हालांकि, कुछ लोगों का दिमाग उन्हें ऐसी जानकारियां भी प्रदान करता है जो इंद्रियों के माध्यम से प्राप्त नहीं की जा सकती हैं। यदि मस्तिष्क कुछ सूचनाओं को संसाधित कर रहा है, जिसे इंद्रियों ने नहीं भेजा है, तो यह अतिरिक्त जानकारी या डेटा कहां से आता है? यह हमें ‘छठी इंद्रिय’ या ‘अतिरिक्त-संवेदी धारणा’ शब्द की जांच के लिए प्रेरित करता है।

मन में इस रहस्य का जवाब है। मन आत्मा और कारण शरीर का प्रतिरूप है जबकि मस्तिष्क भौतिक शरीर का की सच्चाई बयान करता है। अंतर्ज्ञान, टेलीपैथी, सूक्ष्म दृष्टि, अन्तीन्द्रीय श्रवण, चेतना, समानुभूति, मनःप्रभाव, रिमोट सेंसिंग जैसी मानसिक क्षमताओं तक पहुंच बनाने के लिए यह मस्तिष्क को अतिरिक्त संवेदी जानकारी प्रदान करता है।

मानव शरीर की प्रकृति की खोज-बीन नोबेल पुरस्कार विजेता क्वांटम भौतिकविदों ने की हैं। उनकी खोज बताती है कि मानव शरीर 7 ऑक्टिलियन (7 के बाद 27 बार शून्य) परमाणुओं से बना है। ये परमाणु ऊर्जा के भंवरों से बने होते हैं, जो अलग-अलग ऊर्जाओं से प्रभावित लगातार घूमते और कंपन करते हैं। इसलिए, भौतिक शरीर में कुछ भी ठोस पदार्थ से नहीं बना है। क्वांटम भौतिकी के अनुसार – ब्रह्माण्ड, ऊर्जा के कंपन तंत्र से ज्यादा कुछ नहीं है। भारतीय शास्त्रों में वर्णित ज्ञान योग भी यही कहता है।

ऊर्जा संरक्षण के नियम के अनुसार, जीव में कुल ऊर्जा हमेशा समान रहती है। हालांकि, ऊर्जा लेने वाले रूप लगातार बदलते रहते हैं। मृत्यु होने पर, जब भौतिक शरीर नष्ट हो जाता है, तो आत्मा मुक्त हुई ऊर्जा के साथ यात्रा करती है। आत्मा का मन फिर अपनी ऊर्जा का संस्करण बनाता है और स्वयं के लिए एक नई वास्तविकता प्रकट करता है।

इसलिए, अपनी चेतना की स्थिति को बदलने के लिए, आपको अपने मन के स्तर को बदलने की आवश्यकता है। आपके मन का स्तर जितना ऊंचा होता है, उसकी गति उतनी ही कम होती है और आपकी जागरूकता अधिक होती है। जब मन स्थिर होता है, तो यह किसी अन्य स्थिति की तुलना में अधिक मात्रा में सर्वोच्च आत्म या परमात्मा के रूप को दर्शाता है।

संक्षेप में

दृष्टि में रूप मौजूद है।
श्रवण में ध्वनि मौजूद है।
स्पर्श में भाव विद्यमान है।
चखने में स्वाद मौजूद है।
घ्राण में महक मौजूद है।

यदि कोई व्यक्ति देखने, सुनने, छूने, चखने और सूंघने के अनुभव को कम कर सकता है, तो अनुभव करने के लिए बहुत कुछ नहीं होता। इस अवस्था में, अनुभवकर्ता खुद को अनुभव करना शुरू कर देता है। स्वयं के उस अनुभव में, उसे अपनी असीमता का बोध होता है और वह महसूस करता है, वह जैसा है, वैसा ही उसका अनुभव है।

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