दर्शन एवं अभ्यास

महत्वपूर्ण दिन

गुरुदेव वर्ष के कुछ दिनों को विशिष्ट तरीकों से मनाते थे।

बड़ा गुरुवार

महीने के एक गुरुवार को बड़ा गुरुवार के रूप में मनाया जाता है। आम तौर पर यह अमावस्या के बाद का पहला गुरुवार होता है।

इस दिन, देश भर के स्थानों में सेवा होती है। आगंतुकों को चाय और यदि संभव हो तो खिचड़ी भी दी जाती है। बदले में उनसे कुछ भी देने की अनुमति नहीं है क्योंकि दी गई सेवा के लिए कुछ भी स्वीकार नहीं किया जाता है। हालांकि, गुड़गांव के सेक्टर 10 के मुख्य स्थान में आने वाले लोग चीनी में लिपटे जौ के दाने (फुलिया) और बताशे को प्रसाद के रूप में चढ़ाते हैं। स्थान पर ऊर्जा युक्त होने के बाद, चढ़ाए गए बताशे उन्हें वापस कर दिए जाते हैं।

लगभग 50,000 लोग, बड़ा गुरुवार को महागुरु की सहायता लेने के लिए आते थे। वह उन सभी से बहुत थोड़े समय के लिए मिलते थे। कुछ लोगों को इतना वक्त भी नहीं मिलता था कि वे उन्हें विस्तार से बता पाए कि वह उनसे कैसी सहायता चाहते हैं, लेकिन सभी को किसी न किसी तरह वह उपचार मिल जाता था, जिसकी आकांक्षा में वह आता था।

सोमवार का व्रत

गुरुदेव सोमवार का व्रत हर हफ्ते रखते थे। इस दिन, वह रात होने तक केवल तरल पदार्थ लेते थे। महागुरु के रूप में अपने प्रारंभिक वर्षों में, वह पानी, दही और गुड़ के साथ अपना उपवास तोड़ते थे, उसके बाद आलू की सब्जी और रोटियां खाते थे। खाने से पहले जल-दही-गुड़ का मिश्रण गाय, कौए, कुत्ते और घर के मेहमानों को खिलाया जाता था। धीरे-धीरे, समय के साथ, इस परम्परा को छोड़ दिया गया। इन दिनों, सूर्यास्त पर पके हुए आलू और रोटियों के साथ सोमवार का उपवास तोड़ा जाता है। भक्त और शिष्य यदि चाहें तो दिन में फल खा सकते हैं।

उन्होंने उपवास, तपस्या के रूप में करने की सलाह दी। भाग्य से प्राप्त अपने भोजन का त्याग करके, आप स्वेच्छा से इसे दूसरे के लिए दे रहे हैं। इसके अलावा, सप्ताह में एक बार उपवास करने से पाचन तंत्र को आराम मिलता है, विषाक्त तत्वों के विसर्जन से स्वास्थ्य में सुधार होता है, यह शरीर की कोशिकाओं की मरम्मत करता है, चयापचय को गति देता है और मस्तिष्क के स्वास्थ्य को बढ़ाता है। इसके अलावा, चूंकि उस दिन अनाज और नमक का अतिरिक्त निवेश नहीं होता है, इसलिए शरीर में स्राव कम होता है, और मन सक्रियता और तनाव से मुक्त होता है।
सोमवार के दिन चंद्रमा की किरणें बहुत प्रभावी होती हैं। चंद्र किरणें जल और मन को प्रभावित करती हैं। चूंकि हमारे शरीर में लगभग 70% पानी है, इसलिए चंद्रमा की किरणें शरीर को भी प्रभावित करती हैं। संक्षेप में, चंद्रमा शरीर-मन को प्रभावित करता है। शारीरिक और मानसिक कल्याण के लिए सोमवार का उपवास अच्छा है।

सोमवार के दिन के बारे में बताते हुए, रवि जी ने महागुरु के शब्दों को याद करते हुए कहा, “यह दिन आपके इष्ट को समर्पित है, इसलिए आपको इस दिन जितना हो सके उतना पाठ करना चाहिए”।

महागुरु ने शिव के अव्यक्त स्वरूप का ‘इष्ट’ के रूप में उल्लेख किया है।

विशिष्ट उपवास

गुरुदेव ने गणेश चौथ और महाशिवरात्रि पर उपवास रखने का भी सुझाव दिया।

रवि जी अपने गुरु को याद करते हुए बताते हैं कि उपवास आत्म-संयम का अभ्यास है, जिसका प्रयोजन भोजन के सेवन, वाणी और इंद्रियों पर नियंत्रण रखना है।

उपवास मनुष्य की चुम्बकीय शक्तियों को बढ़ाता है और व्यक्ति पृथ्वी या वायुमंडल से अधिक ऊर्जा अवशोषित कर सकता है। ऊर्जा धारण करने की अधिक क्षमता वाले लोगों के लिए, उपवास ऊर्जा की पुनः पूर्ति का एक प्रभावी तरीका है।

गणेश चौथ पर लड्डुओं का वितरण करतीं माताजी

गणेश चौथ

आमतौर पर जनवरी के सर्द और ठंडे मौसम में गणेश चौथ होती है।

इस दिन, भक्त और शिष्य सूर्योदय से चंद्रोदय तक निराहार और निर्जल उपवास करते हैं। गुड़-तिल के लड्डू और गुड़ की चाय से व्रत तोड़ा जाता है। गुड़ की चाय के साथ लड्डू, स्थान पर परोसे जाते हैं या घर पर बनाए जाते हैं।

दिवाली से महाशिवरात्रि तक की अवधि ‘शक्ति काल’ के रूप में जानी जाती है। इस अवधि के दौरान, व्यक्ति की पुरुष ऊर्जा निष्क्रिय हो जाती है, जबकि स्त्री ऊर्जा सक्रिय और प्रभावी रहती है। इस तकनीकी से वाकिफअध्यात्मविद इस अवधि के दौरान अपनी सक्रियता कम कर देते हैं, महिलाओं के साथ अपना सामाजिक मेलजोल भी न्यूनतम आवश्यकताओं तक सीमित रखते हैं।

गणेश चौथ पर, शिव सिद्धांत का तीसरा हिस्सा पुनर्जागृत हो जाता है जो एक पुरुष को ऊर्जावान बनाकर पुनः आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। अंत में, महाशिवरात्रि पर, किसी व्यक्ति की ऊर्जा का शिव सिद्धांत पूरी तरह से जीवंत और प्रभावी हो जाता है।

महाशिवरात्रि

हर साल फरवरी या मार्च में यह दिन गणेश चौथ के 41 दिन बाद आता है।

जो यह व्रत रखते हैं उन्हें सूर्योदय के पूर्व खाना होता है और फिर मध्यरात्रि तक वो अन्न या जल ग्रहण नहीं करते हैं। वे या तो स्थान पर या अपने घरों पर तले हुए नमकीन आलू और काली मिर्च-नींबू की चाय के साथ उपवास तोड़ते हैं।

यह व्रत गणेश चौथ की तुलना में अधिक कठोर है क्योंकि यह थोड़ा लम्बा होता है। गुरुदेव के समय में, महाशिवरात्रि पर कई किलोमीटर लम्बी लाइन लगती थी। भक्तों को महागुरु से मिलने और उनका आशीर्वाद लेने में तीन से चार दिनों का समय लग जाता था।

वैसे तो महाशिवरात्रि हर स्थान में आयोजित की जाती है, लेकिन गुड़गांव स्थान पर अपना उपवास तोड़ने के लिए देश भर के अनेक श्रद्धालु एकत्रित होते हैं। उनके रहने और खाने की व्यवस्था सेवादारों द्वारा की जाती है। बड़ी मात्रा में भोजन पकाया जाता है और सभी आगंतुकों को महाशिवरात्रि के दो दिन पहले से लेकर दो दिन बाद तकलंगर परोसा जाता है।

गुरुदेव के जीवन का करीब से अध्ययन करने पर, मैं यह पाता हूं कि लगभग हर अवसर उनके लिए अनगिनत लोगों को भोजन कराने का एक और मौका बन जाता था।

कपड़े में लपेटे गए नारियल को अभिमंत्रित करके एक भक्त को भेंट करते गुरुदेव

गुरु पूर्णिमा

हर साल, ज्यादातर जुलाई में, एक दिन औपचारिक रूप से गुरु को समर्पित होता है और इसे गुरु पूर्णिमा कहा जाता है। यह दिन आपके जीवन में उनकी उपस्थिति और आपकी आध्यात्मिक प्रगति में उनके योगदान के लिए अपने गुरु को सम्मान देने का दिन है।

गुरुदेव इस दिन को एक प्रथा के रूप में उत्सवपूर्वक मनाते थे। उनके भक्त उन्हें कपड़े में लपेटे हुए नारियल भेंट करते, जिसे वह आशीर्वाद देकर वापस लौटा देते। नारियल आमतौर पर मानव सिर का प्रतीक माना जाता है और अपने गुरु को नारियल चढ़ाने का अर्थ है उनके अनुग्रह के प्रति समर्पण। उन्होंने अपने शिष्यों को उन्हें नौ कपड़े या सामान का सेट देने की अनुमति दी। प्रकारांतर मेंहम पीले रंग के रूमाल पर ‘नौ कपड़े’ लिखकर उन्हें भेंट करने पर भी, वे उसे इस प्रथा का सम्पन्न होना मान लेते थे। उन्होंने कुछ शिष्यों को अपने चरणामृतपान की अनुमति दी, जो बहुत ही शक्तिशाली था क्योंकि इसमें उनकी ऊर्जा निहित थी। कुछ शिष्यों के लिए ऊर्जित जल अमृत साबित हुआ क्योंकि इससे उनकी चेतना जागृत हुई।

हजारों की संख्या में भक्त उनका आशीर्वाद पाने और उनसे अपने नारियल को अनुगृहित कराने के लिए एकत्र होते थे। कुछ लोग जब तक उनके दर्शन नहीं कर लेते थे, अपना उपवास नहीं तोड़ते थे। स्थान पर आने वाले श्रद्धालुओं को केसर और गुड़ के चावल तथा आम दिए जाते थे।

दशहरा, धनतेरस और दिवाली

चंद्र चक्र के अनुसार, दशहरे से लेकर दिवाली तक के बीस दिनों को वर्ष का सबसे अंधकारमय माना जाता है। गुरुदेव ने हमें इस अवधि का लाभ उठाने यथासंभव पाठ करने की सलाह दी।

गुरु बनने की प्रक्रिया में, महागुरु दशहरा के दौरान जमीन पर सोते, लगातार बिना बदले एक ही कपड़े पहनते, यदि संभव हो तो हल्का भोजन करते और जितना संभव हो उतना पाठ करते। बाद के वर्षों में, उन्होंने स्वयं इन नियमों का पालन बंद कर दिया, लेकिन अपने शिष्यों को इसे जारी रखने का सुझाव दिया।

धनतेरस पर महागुरु द्वारा अभिमंत्रित चांदी का सिक्का प्राप्त करते श्रद्धालु

धनतेरस

दिवाली से एक या दो दिन पहले धनतेरस होता है। यह धन की देवी लक्ष्मी देवी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने और समृद्धि का अनुरोध करने का दिन है।

इस दिन महागुरु के अनुयायी, भक्त और शिष्य लक्ष्मी देवी का एक चांदी का सिक्का लाते और उसे उनसे अनुगृहित करवाते। दिवाली की रात से 41 रातों तक इस सिक्के पर केसर या सिंदूर का तिलक लगाया जाता है। और गुरु के दिए गए विशिष्ट मंत्र का उच्चारण देवी की ऊर्जा को प्रसन्न करने के लिए किया जाता है ताकि समृद्धि की शक्ति जो हम में से प्रत्येक के भीतर अन्तर्निहित है, को जागृत किया जा सके।

दिवाली

दिवाली की रात वर्ष की सबसे अंधेरी रात होती है। महागुरु ने कि हमें इस रात को विशेष रूप से सात विशिष्ट स्थानों, जल निकाय, तुलसी का पौधा, पीपल का पेड़, चौराहा, मंदिर, कब्रिस्तान और अपने घरों में दीये या तेल का दीपक जलाने की सलाह दी। दीये आमतौर पर, ऊर्जाओं को प्रसन्न करने के लिए जलाए जाते हैं।

गुरुदेव ने हमें दिवाली की रात पाठ करते हुए गुजारने का भी सुझाव दिया। भले ही मंत्र-आधारित ध्यान हर दिन करना जरूरी है, लेकिन विशिष्ट दिनों में इसका लाभ काफी बढ़ जाता है।

अन्य महत्वपूर्ण दिन

गुरुदेव ने सुझाव दिया कि ग्रहण के दौरान, हमें पाठ करना चाहिए तथा अन्न और जल नहीं ग्रहण करना चाहिए।

श्राद्ध के दिनों में, गुरुदेव ने अपने पूर्वजों के नाम पर लोगों और जानवरों को खिलाने की वकालत की। इसके अलावा, उनके नाम पर परोपकार के अन्य काम भी किए जा सकते हैं। जब भी आप अपने पूर्वजों के लिए कुछ करते हैं, तो उस कर्म का कुछ लाभ आपके हिस्से में आता है। शेष उन्हें प्राप्त होता है।

जन्मदिन को लेकर वह आम लोगों से विपरीत सोच रखते थे, क्योंकि महागुरु का मानना था कि जीवात्मा न तो पैदा होती है और न ही मरती है। हालांकि, महागुरु के जाने के बाद, उनके भक्तों ने बसंत पंचमी को उनके जन्मदिन के रूप में मनाना शुरू कर दिया। जबकि गुरुदेव के समय से ही बसंत पंचमी पर केसरिया चावल बांटने की परंपरा चली आ रही है, वह इसे केवल ज्ञान की देवी सरस्वती को समर्पित दिन के रूप में देखते थे।

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