रहस्यमयी व्यक्ति

औघड़ की यशोगाथा

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मानव वेश में एक पवित्र आत्मा
जिसका दृढ़ निश्चय कई गुना
आंखें जिनकी माणिक-सी उज्ज्वल
चाल है जिनकी मोहक और चंचल
प्रकट होते सर्वत्र, प्रभाव सदा रहता प्रबल

एक अन्य व्यक्ति जिसका ज़िक्र गुरुदेव (और कुछ अन्य) की कहानियों में बार-बार मिलता है, वह था उनका रहस्यमयी शिष्य, औघड़। औघड़ अघोरी संप्रदाय का प्रमुख होता है, जिसके बारे में माना जाता है कि उसका हरिद्वार, उत्तराखंड और उसके आस-पास के क्षेत्रों में प्रभुत्व था।

अघोर एक ऐसी चेतना है जो विरोधाभास या भेदभाव से रहित है। औघड़ के अनुयायियों द्वारा की जाने वाली अघोर विद्या (ज्ञान) को तांत्रिक पूजा के निम्नतम स्वरूप बाएं हाथकी साधना के रूप में मान्यता दी गई है। अघोरियों द्वारा की जाने वाली कुछ असामान्य तांत्रिक साधनाएं, जिसमें शव एवं मल खाना, स्वच्छता पर ध्यान न देना और अन्य तांत्रिकों के साथ श्मशान में ध्यान करने के कारण उन्हें यह गलत नाम मिला है। अघोरी का दर्शन अद्वैत की प्राप्ति करना है। ये अजीब प्रथाएं अघोरियों को उस स्थिति तक पहुंचा देती हैं जहां बदबू और अन्य संवेदी उत्तेजनाओं का एहसास खत्म हो जाता है। इनका लक्ष्य, गंदगी में भी शुद्धता खोजना है। दूसरी तरफ, वे शाकाहार और मांसाहार के बीच भेद नहीं करते, वे लाशों को खाते हैं और मानव खोपड़ी में शराब पीते हैं। भले ही उनकी प्रथाओं को अच्छी नजर से नहीं देखा जाता, लेकिन सच्चाई यह है कि अघोरी दर्शन काफी गड़बड़ प्रतीत होने के बावजूद बहुत विकसित है। अद्वैत का अभ्यास करने से, अघोरी माया (भ्रम) के जाल से बाहर निकलने में सक्षम हैं। हालांकि, औघड़ गुरुदेव का शिष्य था, परंतु उसके अनुयायी गुरुदेव के शिष्य नहीं थे।

औघड़ शक्ति के बिना शिव के विलक्षण स्वरूप की अभिव्यक्ति था। उसके पास कई स्थानों पर अलग-अलग मानव रूपों में प्रकट होने की शक्ति थी, और वह दूरसंवेदन (टेलीपैथिक रूप से) के जरिए संवाद बनाने में सक्षम था।

गुरुदेव के शिष्य रवि त्रेहान जी के अनुसार, गुरुदेव औघड़ का हवाला अपने शिष्यों के ‘बड़े भाई’ के रूप में देते थे, एक ऐसा व्यक्ति जिससे आध्यात्मिक मामलों में मदद की गुहार लगाई सकती थी। गुरुदेव के कई शिष्यों ने अपने इस गुरु-भाई को मदद के लिए जब भी पुकारा (आध्यात्मिक सहयोगी), उन्हें उनसे मदद मिली, जबकि कुछ, जैसे सुरेन्द्र तनेजा नाम के शिष्य की पत्नी शोभा जी, सांसारिक जरूरतों की पूर्ति के लिए औघड़ को व्यक्तिगत जिन्न के रूप में इस्तेमाल करती थीं। हालांकि, अधिकांश उसकी अव्यक्त अमूर्तता के साथ जुड़ने में असमर्थ थे, और इसलिए वे औघड़ की आध्यात्मिक शक्ति का लाभ नहीं उठा सके।

गुरुदेव हरिद्वार, उत्तराखंड की अपनी यात्राओं के दौरान औघड़ से मिलते थे। एक शाम हर की पौड़ी में जब गुरुदेव और उनके शिष्य आरती (प्रार्थना) के समय भीड़ में खड़े थे, तब उन्होंने उन्हें एक उचित दूरी पर जाकर खड़े होने का निर्देश दिया। फिर उन्होंने माताजी से अनुरोध किया कि आरती को अच्छे से देखने के लिए वे नदी के तट के करीब जाएं। माताजी समझ गईं कि उनके पति औघड़ के साथ एक संभावित मुलाकात की चाह में उनसे एकांत चाहते हैं। उस रहस्यमय शिष्य को देखने के लिए उत्सुक माताजी ने वहीं रहने पर जोर दिया। हालांकि, जैसे ही आरती शुरू हुई, शंख, घड़ियालों और मंत्रों की उच्च ध्वनि ने उनका ध्यान भंग कर दिया।

जब माताजी कुछ मिनट बाद गुरुदेव की ओर मुड़ीं, तो उन्होंने सफेद सूती कुर्ता-पायजामा और पगड़ी पहने एक व्यक्ति को देखा, जो गुरुदेव के पैर छूने के लिए झुका हुआ था। इससे पहले कि वे समझ पातीं कि क्या चल रहा है, वह आदमी मुड़ा और गुरुदेव के साथ चला गया। कुछ ही क्षणों में, वे भीड़ में लुप्त हो गए।

गुरुदेव की अनुपस्थिति का पता चलते ही, शिष्य दौड़कर माताजी के पास आए और गुरुदेव के बारे में पूछताछ करने लगे। माता जी ने उन्हें पूरा वृत्तांत बता दिया। बहुत भागदौड़ के बाद भी, शिष्य गुरुदेव का पता नहीं लगा पाए। जब गुरुदेव कुछ समय बाद लौटे, तो उन्होंने पुष्टि की कि वे जिस व्यक्ति के साथ थे, वह औघड़ था। गुरुदेव ने अपनी पत्नी को यह भी बताया कि औघड़ ने सम्मानस्वरूप उनके पैर भी छुए थे, लेकिन माताजी को कुछ भी याद नहीं था।

माताजी ने औघड़ के साथ एक और मुलाकात को याद करते हुए बताया कि कई वर्षों के बाद जब वह गुरुदेव के साथ उत्तराखंड के ऋषिकेश गईं, तो उस यात्रा में अनेक शिष्य और उनके परिवार भी उनके साथ थे। क्योंकि उस दिन बहुत गर्मी थी, उनकी टोली ने लक्ष्मण झूला (गंगा के पार एक पुल) पार किया, और वे घाट के निकट ही एक स्थान पर विश्राम करने रुक गए। आराम करने वाले लोगों में साधुओं की एक टोली भी थी और एक आदमी सफेद चादर ओढ़े, एक लंबी बेंच पर लेटा हुआ था। गुरुदेव चादर ओढ़े हुए व्यक्ति पैरों के पास बेंच पर बैठ गए। इसके बाद उन्होंने माताजी सहित समूह की महिलाओं से कहा कि वे स्नान करने के लिए महिलाओं के लिए निर्धारित स्नान क्षेत्र की ओर जाएं। पुरुषों को गंगा के ठंडे पानी में डुबकी लगाने का निर्देश दिया गया।

जब महिलाएं जा रही थीं, शोभा जी ने गुरुदेव से उनकी बगल में अपने बेटे को लेटाने की अनुमति मांगी। गुरुदेव ने उस बच्चे को चादर-ओढ़े आदमी के सिर के बगल में लेटाने के लिए कहा। जब शोभा जी ने अपने बेटे को लेटाया, तो उन्होंने देखा कि दो लाल-सी आंखें चादर की झिर्री से उन्हें घूर रही थीं। डर के मारे उनकी चीख निकल पड़ी। गुरुदेव ने तुरंत उनसे अपने बेटे को उसकी देखरेख में छोड़कर अन्य महिलाओं के पास जाने के लिए कहा।

कुछ मिनट बाद, उनके पति सुरेंद्र जी, जो गंगा में डुबकी लगाने ही वाले थे, ने देखा कि एक बुजुर्ग व्यक्ति गुरुदेव के पैर छूने के लिए झुक रहा है। जब वह एक या दो सेकंड बाद नदी से बाहर निकले, तो वहां सिर्फ गुरुदेव थे, लेकिन बुजुर्ग व्यक्ति कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। वह तुरंत समझ गए कि वह व्यक्ति कौन था और उन्होंने अन्य शिष्यों को बताया कि जो व्यक्ति गुरुदेव के चरण छू रहा था, वह कोई और नहीं उनके रहस्यमय गुरु भाई औघड़ थे। वे गुरुदेव के पास गए और उनसे पूछा, “गुरुजी, क्या वो औघड़ थे?” उन्होंने पुष्टि में सिर हिला दिया।

मैं औघड़ से कई बार मिला हूं, मेरी पहली मुलाकात 1980 के दशक में लुधियाना, पंजाब में हुई थी।

गुरुदेव ने सुभाष सभरवाल और मुझे माताजी के साथ उनके गृहनगर जाने का निर्देश दिया। लुधियाना में माताजी के मायके पहुंचने के बाद, सुभाष और मैं तंबाकू खरीदने के लिए पास की एक पान (सुपारी) की दुकान पर गए। जब हम कोने में बनी दुकान की ओर जा रहे थे, हमने देखा कि एक शराबी बेवजह हमारे रास्ते में साइकिल चला रहा है। जब हम खरीदारी करके वापस घर लौटने लगे तो वह आदमी हमारा रास्ता रोकते हुए हमारे सामने खड़ा हो गया। उसने हमें भेदती हुई आंखों से देखा और उल्लासपूर्वक मंत्र जाप करने लगा। मैं चौंक गया, जब मैंने उसे उसी मंत्र को जाप करते सुना जो मैं उस समय मानसिक रूप से कर रहा था!

मुझे लगा कि इस आदमी के साथ उलझना नहीं चाहिए। इसलिए, सुभाष और मैं तेज कदमों से माताजी के घर की ओर चल पड़े। मैंने देखा कि वो शख्स सारी रात साइकिल पर घर के चक्कर काटता रहा। सुबह होने पर वो चला गया। इस घटना को करीब चालीस साल हो गए हैं, मुझे याद नहीं है कि गुरुदेव ने कभी इस बात की पुष्टि की थी कि वह आदमी औघड़ था या मैं अपनी सहज वृत्ति से उस नतीजे पर पहुंच गया था। लेकिन मैं निश्चित रूप से जानता हूं कि औघड़ ने पूरी रात अपने गुरु की पत्नी के निवास-स्थान की रक्षा करने में बिताई थी।

औघड़ से मेरी अगली मुलाकात कुछ साल पहले हुई थी जब मैंने देहरादून, उत्तराखंड के एक सुरम्य गांव अस्थल में सेवा शुरू करने का फैसला किया था। यह इलाका औघड़ के अधिकार क्षेत्र में आता था, मैंने उसे स्थान की यात्रा के लिए ‘मानसिक निमंत्रण’ दिया। सेवा के पहले कुछ दिनों में, मैंने आत्मविश्वास से भरे लेकिन नशे में धुत्त एक आदमी को उस कमरे के बाहर खड़ा देखा, जहां मैं इलाज के लिए आए लोगों की सेवा कर रहा था। उसने एक जानी-पहचानी मुस्कान के साथ भेदती नज़रों से मुझे देखा और आंखों ही आंखों में हमारी बातें हो गईं।

जब एक सेवादार (सेवा के साथ मदद करने वाला व्यक्ति) ने उसे आगंतुकों को परोसे जाने वाले जलपान में हिस्सा लेने के लिए कहा, तो उसने कहा कि वह एक आमंत्रण का सम्मान करने के लिए वहां आया है। तब तक मैंने केवल एक ही व्यक्ति को अस्थल में आमंत्रित किया था, जिससे इस बात की पुष्टि हो गई, जो मुझे पहले से ही पता थी – गुरुदेव का रहस्यमय शिष्य, औघड़ हमारे बीच था।

दिलचस्प बात यह है कि मेरे गुरु-भाई (आध्यात्मिक सहयोगी) मेरी मदद के लिए एक ऐसे प्रसंग में आए, जो वास्तव में आध्यात्मिक नहीं था और वह भी उनके अव्यक्त रूप में।

गुरुदेव के प्रिय शिष्यों में से एक राजी शर्मा, एक बार गुरुदेव से मिलने देर रात गुड़गांव पहुंचे, तो मुझे उनके लिए चाय बनाने के लिए कहा गया। निश्चित रूप से यह ऐसे व्यक्ति के लिए बहुत बड़ा काम था, जिसने अपने जीवन में कभी चाय नहीं बनाई थी!

मैं मदद की उम्मीद से उस कमरे की ओर गया, जहां स्थान के चार उत्साही शिष्य गग्गू, बिट्टू, पप्पू और निक्कू – गहरी नींद में सो रहे थे। जब मैं इस चौकड़ी के एक भी सदस्य को जगा नहीं सका, तो मजबूरन मुझे खुद ही चाय बनानी पड़ी।

मैंने स्टोव जलाया और पानी के एक बर्तन को चाय की पत्तियों के साथ उस पर चढ़ा दिया। फिर मैंने अपने बड़े भाई औघड़ से अनुरोध किया कि वह मुझे एक कप अच्छी-सी चाय बनाने में मदद करें। और अचानक ही एक विचार-तरंग के रूप में मुझे पहला निर्देश मिला, जो यह था कि मुझे आधा बर्तन खाली करके उसमें ताजा पानी डालना चाहिए। फिर मुझे बताया गया कि चाय मसाला (चाय मसाले) कहां रखा है और यह ठीक उसी जगह पर था जहां संकेत दिया गया था। मुझे आगे के निर्देश मिले कि कितनी मात्रा में चीनी और दूध मिलाना है, और इसे कितनी देर उबालना है।

जब चाय तैयार हो गई, तो मैंने केतली से उसे दो कपों में डाला और गुरुदेव के कमरे की तरफ चल पड़ा। चाय देने के बाद, मैंने गुरुदेव और राजी जी को बातचीत जारी रखने के लिए कमरे में छोड़ दिया। एक या दो मिनट के बाद, मैंने गुरुदेव को यह कहते हुए सुना, “ओय, चाय बहोत बदिया बनाई है (आपने अच्छी चाय बनाई है)।” मैंने उनसे पूछा कि क्या वह एक और कप चाय लेना पसंद करेंगे और गुरुदेव ने कहा कि वह करेंगे। पाठकों, मैं आपको गारंटी देता हूं कि अब मैं अपने मायावी गुरु-भाई के बताए गए नुस्खे से अधिकांश लोगों से बेहतर चाय बना सकता हूं और इसके लिए उनका कोटि-कोटि धन्यवाद!