महागुरु

आध्यात्मिक मार्गदर्शक

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आध्यात्मिक रहबर थे वो,
खुद को रख चकाचौंध से दूर
बनाते रहे दूसरों के लिए नित नये मुकाम।
जिस राह चले थे वो,
उस पर चल लाखों ने पाएं अपने आयाम।

ग्रामीण भारत में पले-बढ़े होने के बावजूद, गुरुदेव ने समकालीन जीवन जिया। उन्होंने जीवन का एक तरीका अपनाया, जो प्रगतिशील और आध्यात्मिकता का एक अनूठा सम्मिश्रण था। महिलाओं के बारे में उनका दृष्टिकोण बहुत प्रगतिशील था।

महिलाओं के प्रति दृष्टकोण

गुरुदेव में दहेज प्रथा को लेकर तिरस्कृत भाव था। वह शानो-शौकतपूर्ण शादियों पर व्यर्थ किए जाने वाले खर्च के खिलाफ थे क्योंकि वह नहीं चाहते थे कि दुल्हन के परिवार पर किसी भी तरह का बोझ डाला जाए। वह अक्सर अपने कुछ शिष्यों और भक्तों के लिए स्थान में साधारण विवाह समारोह आयोजित करते थे, जहां लंगर खाना शाही भोज में तब्दील हो जाता था। उन्होंने एक बार बिट्टू जी से कहा था, ”पुत्त, हमें समाज में एक मिसाल कायम करनी होगी, ताकि कोई लड़कियों को बोझ न समझे।” वे कन्यादान की रस्म को बहुत ही उच्च स्थान के रूप में मान्यता देते थे।

कन्यादान को दुल्हन के माता-पिता के पक्ष में दूल्हे द्वारा लिया गया एक बड़ा ऋण माना जाता है, क्योंकि उन्होंने बेटी को जन्म देकर, उसकी परवरिश और पालन-पोषण किया होता है।

 

Gurudev - the Guru of Gurus

एक भाई के रूप में, गुरुदेव ने अपनी बहनों को

एक भाई के रूप में, गुरुदेव ने अपनी बहनों को आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने उनसे कहा कि जब वह गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने की इच्छा व्यक्त करेंगी तभी वे उनका विवाह कराएंगे। उनकी बेटी, रेणु जी अपने पिता के शब्दों को याद करते हुए कहती हैं, “यदि भावी वर अपनी भावी वधू का चुनाव यह सोचकर करता है कि क्या वह एक अच्छी पत्नी बनेगी तो विवाह नहीं होगा।” पहले तो रेणु जी को गुरुदेव की बात का मतलब समझ नहीं आया, लेकिन आत्मनिरीक्षण करने पर, उन्हें एहसास हुआ कि उनके पिता शादी पर उनके विचारों से सहमत थे। विवाह किसी को केवल देखने और योग्यता के आधार पर आंकने का नाम नहीं है। यह बहुत गहरा रिश्ता है, क्योंकि यह शिव और शक्ति के मिलन को दर्शाता है।

गुरुदेव की दुनिया में, महिलाएं शक्ति की अभिव्यक्ति थीं, और सम्माननीय थीं। वास्तव में, एक निश्चित अवधि के दौरान, उन्होंने अपने शिष्यों को मानसिक रूप से अपनी पत्नियों का चरण स्पर्श करने और उन्हें उच्च स्थान देने का निर्देश दिया था।

आध्यात्मिक महत्वाकांक्षा

गुरुदेव की दुनिया में, गुरु होने पर आध्यात्मिक उपलब्धि पर घमंड का कोई स्थान नहीं था। गुरुदेव ने अपनी आध्यात्मिक महानता को अपने गले में पदक की तरह पहनने से इनकार कर दिया। उन्हें उम्मीद थी कि उनके शिष्य भी ऐसा ही करेंगे।

गुरुदेव ने अपनी अलग अहमियत बनाने की बजाय घुलना-मिलना पसंद किया। राजी जी याद करते हैं कि कथोग में अपने शिष्यों को सेवाकार्य देने के बाद, गुरुदेव पेड़ की छाया तले खड़े होकर वहां चल रहीं गतिविधियों की देखरेख करते रहते। एक दिन, जब महिलाओं के एक समूह ने उनसे पूछा कि “गुरुजी कहां हैं?”, उन्होंने सेवा कर रहे एक शिष्य की ओर इशारा करते हुए कहा, “वह वहां हैं।”

गुरुदेव ने प्रसिद्धि से दूर रहते हुए शांतिपूर्वक सेवा का कार्य किया। एक गुरु पूर्णिमा पर, कुछ शिष्यों ने गुड़गांव के पास एक चौराहे पर उनकी तस्वीर वाला एक बैनर लगाया। जब गुरुदेव को इस बारे में पता चला, तो वे उस जगह गए जहां यह बैनर लगा हुआ था, और कुछ बुदबुदाए। फिर उन्होंने अपने शिष्यों को डांटा और उन्हें चेतावनी दी कि वे इस तरह के प्रचार में न उलझें।

जब लोग उनकी अनुमति के बिना उनकी तस्वीर लेते, तो धुलने के बाद रील खाली निकलती। कई बार, गुरुदेव की तस्वीर खींचते समय कैमरा खराब हो जाता और गुरुदेव के फ्रेम से बाहर होते ही काम करना शुरू कर देता। जब पत्रकार गुरुदेव का साक्षात्कार करने गुड़गांव गए, तो उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि वे उन्हें चाय पिलाएं और उसके बाद उनसे जाने का अनुरोध करें। उन्होंने गुमनामी का जीवन पसंद किया।

एक वरिष्ठ शिष्य, एफ सी शर्मा जी बताते हैं कि डॉ. शंकरनारायण जी ने एक बार गुरुदेव से कार्य से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण काम में उनका साथ देने का अनुरोध किया। भले ही गुरुदेव उनके अनुरोध से सहमत थे, लेकिन गुरुदेव की व्यस्तता के कारण योजना हर बार धरी रह जाती। एक सुबह, शंकरनारायण जी गुड़गांव पहुंचे और गुरुदेव से पुनः आग्रह किया। गुरुदेव ने उनसे एक कैमरा लाने और उनकी तस्वीर खींचने के लिए कहा। उन्होंने  शंकरनारायण जी को निर्देश दिया कि जब वे महत्वपूर्ण कार्य के लिए जाएं तो उनकी फोटो अपनी कमीज की जेब में रख लें। महागुरु बनने के बाद यह पहला अवसर था जब गुरुदेव ने अपनी तस्वीर खींचने की अनुमति दी।

एक तस्वीर, व्यक्ति का 2 डी प्रतिनिधित्व है जिसका उपयोग आध्यात्मिक संपर्क स्थापित करने के लिए किया जाता है। शंकरनारायण जी को अपनी तस्वीर ले जाने का निर्देश देकर, गुरुदेव इस संपर्क को बढ़ा रहे थे। मैंने देखा है कि जब गुरुदेव आध्यात्मिक रूप से मुश्किल मामलों में भाग लेने जाते तो अपने सफारी सूट की जेब में अपनी तस्वीर रख लेते। वे ऐसा इसलिए करते थे, ताकि वे अपनी शक्ति का विस्तार अपने गुरु रूप से जुड़कर करें, जो उनके छायाचित्र में निहित है।

अध्यात्मवादी शारीरिक या मानसिक रोगों से पीड़ित व्यक्ति की तस्वीर पर ध्यान केंद्रित करके उपचार भी करते हैं।

एक शिष्य, सुरेश प्रभु याद करते हुए कहते हैं कि, “गुरुदेव ने कभी ध्यान आकर्षित करने की जरूरत नहीं समझी। उन्होंने कभी भी तथाकथित गॉड-मैन कहे जाने वाले लोगों की तरह व्यवहार नहीं किया। वह बहुत ही साधारण, बेफिक्र और अप्रत्यक्ष थे।”

गुरुदेव का मानना था कि आध्यात्मिकता आत्म-प्रचार के लिए नहीं है, बल्कि आत्म-विघटन के बारे में है, यह मैं से निकलकर अनेकों से जुड़ने के बारे में है। वे एक से अनेक, अनेक से एक के विचार में विश्वास रखते थे।

निःस्वार्थ सेवा

गुरुदेव निःस्वार्थसेवा को लेकर बेहद सतर्क थे। भले ही उनकी आध्यात्मिक शक्तियों ने असंख्य जीवनों को रोगमुक्त करने में सहायता की, लेकिन उन्होंने अपने सगे संबंधियों के लाभ के लिए उन शक्तियों का उपयोग करने से हमेशा परहेज किया। जब गुरुदेव के बच्चे बीमार होते, तो उनके इलाज के लिए स्थानीय चिकित्सक की सहायता ली जाती। जब गुरुदेव की मां उपचार कराने के लिए स्थान पर आईं, तो उन्होंने उन्हें भी अन्य सभी लोगों की तरह कतार में खड़े होने के लिए कहा। कभी-कभी उनका परिवार उनकी सेवा का साधन बन जाता था। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने एक बार एक युवा भक्त की बीमारी को ठीक करने के लिए उसकी बीमारी को अपनी ही बेटी में स्थानांतरित कर दिया था।

मई 1989 में रविवार की दोपहर, गुरुदेव ने बिट्टू जी को फार्म में काम करने वाले लोगों के लिए एक मारुति ओमनी वैन की डिक्की में लंगर का खाना रखने और दोपहर के भोजन के बाद खांडसा फार्म जाने के लिए तैयार रहने को कहा।

जब बिट्टू जी गुरुदेव के कमरे में यह बताने के लिए गए कि वे फार्म पर चलने के लिए तैयार हैं, तो उन्होंने पाया कि गुरुदेव गहरी ध्यानावस्था में बिस्तर पर बैठे हैं। यह देखकर, उन्होंने दरवाजा बंद कर दिया और पास वाले कमरे में बैठकर धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करने लगे। आधे घंटे के बाद, गुरुदेव ने बिट्टू जी से कहा कि चलो, अब चलते हैं।

किसी गहन कारण के चलते, गुरुदेव जो हमेशा सामने की यात्री सीट पर बैठते थे, वैन की पिछली सीट पर बैठे। थोड़ी दूर चलने के बाद, गुरुदेव ने बिट्टू जी से चिलचिलाती धूप में सड़क के किनारे से जा रहे बुजुर्ग दंपति को वैन में बैठाने के लिए कहा। बिट्टू जी ने खिड़की का शीशा नीचे किया और उन्हें उनके गंतव्य तक छोड़ने की पेशकश की। दंपति ने पहले थोड़ा सोचा और फिर बिट्टू जी के बार-बार अनुरोध करने पर वैन में बैठ गए। वे लाचार से अपने विचारों में इतने खोए हुए थे, कि उन्हें अपने बगल में बैठे गुरुदेव की उपस्थिति का भी आभास नहीं हुआ।

यात्रा के दौरान, उन्होंने बताया कि वे गुरुदेव से मिलने के लिए गुड़गांव आए थे। हालांकि, बहुत उम्मीदों के साथ जब वह स्थान पर पहुंचे, तो सेवादार का व्यवहार बहुत खराब और निराशाजनक था। अपनी कहानी बताते हुए उनकी आंखों से आंसू छलक पड़े। उनकी दयनीय स्थिति देखने में असमर्थ, बिट्टू जी ने कहा, “अपनी बाईं ओर देखिए। गुरुदेव आपके बगल में बैठे हैं।”

वे गुरुदेव के चरणों में नतमस्तक हो गए, गुरुदेव ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए उठाया और अपनी सीट पर बैठने के लिए कहा, “आपका काम हो गया है।” दंपति की आंखों में कृतज्ञता के आंसू छलक पड़े।

चूंकि दंपत्ति ने कुछ दिनों से खाना नहीं खाया था, इसलिए गुरुदेव ने बिट्टू जी को निर्देश दिया कि वे वैन को छाया में रोकें और उन्हें लंगर खिलाएं। उनके भोजन समाप्त कर लेने के बाद, गुरुदेव ने उन्हें कुछ पैसे दिए और कहा कि अपने घर के लिए कुछ राशन खरीद लीजिएगा।

बिट्टू जी द्वारा दंपत्ति को बस-स्टॉप पर उतारने के बाद, गुरुदेव ने उनसे कहा, ”पुत्त, दंपति को उनके बेटे ने घर से निकाल दिया है। चूंकि उनके पास खाने के लिए पैसे नहीं थे, इसलिए वे मदद के लिए स्थान पर गए थे। स्थान पर सेवादार के बुरे व्यवहार से दुखी और निराश होकर, उन्होंने खुदकुशी का फैसला कर लिया था। जब हमने उन्हें अपनी वैन में बैठाया, तब वे पटरियों पर मरने के लिए रेलवे स्टेशन जा रहे थे।”

यह सुनकर बिट्टू जी ने महसूस किया कि जब गुरुदेव अपने कमरे में ध्यानमग्न बैठे थे, तो न केवल वह कुछ कमरों की दूरी पर वृद्ध दंपति के साथ अपने शिष्य की बातचीत सुन रहे थे, बल्कि उनकी प्रार्थना का जवाब देकर, उनके विश्वास को पुरस्कृत कर रहे थे। गुरुदेव ने सदैव प्रार्थना के पीछे के भाव को महत्व दिया और उसे अपनी कृपा से नवाज़ा।

गुरुदेव ने स्वयं के परे सोचने और अनुकंपा के दायरे को विस्तारित करने पर जोर दिया। उन्होंने कहा, “प्रार्थनाएं और अनुष्ठान मर्यादाओं से बंधे होते हैं। दूसरी ओर, नि:स्वार्थ सेवा की कोई सीमा नहीं है। जितनी अधिक आप सेवा करते हैं, उतना ही आप सर्वोच्च चेतना के साथ संरेखित होते हैं। यदि आप दूसरों की सहायता करते हैं, तो आप अपने भीतर और अपने बाहर के सर्वोच्च की सेवा करते हैं।”

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यदि आप दूसरों की सहायता करते हैं,
तो आप अपने भीतर और बाहर के सर्वोच्च की सेवा करते हैं।

Gurudev - the guru of gurus

गुरुदेव सेवा के प्रति इतने समर्पित थे कि वे रात में मुश्किल से 3 से 4 घंटे सोते थे। उनके दिन की शुरुआत जल्दी होती थी, ताकि वे ऑफिस जाने से पहले मरीजों से मिल सकें। शाम को ऑफिस से आने के बाद भी वह उनसे मिलते थे, जिन्हें उनकी मदद की जरूरत होती थी। हम में से कुछ उनके साथ ज्यादा समय बिताने के लिए हर मुमकिन कोशिश करते। इस दौरान, हम उनसे कई प्रश्न पूछते और उनसे अपनी आध्यात्मिक भ्रांतियों को दूर करने का अनुरोध करते। हमारी सभी समस्याओं का समाधान करने के बाद ही वे रात का खाना खाते।

जो कुछ भी पकाया जाता था, गुरुदेव एक जितेन्द्रिय की भांति खा लेते। उन्हें भोजन की बर्बादी पसंद नहीं थी और कभी-कभी भले ही उनके लिए ताजा भोजन तैयार किया गया हो, लेकिन वे एक दिन पहले के बचे खाने को प्राथमिकता देते।

हर महीने 4-5 बार ऐसा होता था, जब गुरुदेव खाने का एक निवाला तक लेने से इंकार कर देते थे। एक बार जब गुरुदेव ने लगातार दूसरे दिन रात का खाना खाने से मना कर दिया, तो बिट्टू जी ने उनसे शिकायत की कि वे अपनी सेहत का ख्याल नहीं रख रहे हैं। गुरुदेव ने बिट्टू जी को बैठाया और कहा, ”पुत्त, तुम रोज मुझसे पूछते हो कि मैं तुम्हारे द्वारा परोसे गए खाने को खाने से क्यों मना कर देता हूं। भौतिक रूप से मैं गुड़गांव में यहां मौजूद हो सकता हूं, लेकिन अगर दुनिया में कहीं भी मेरे आध्यात्मिक परिवार का कोई भी सदस्य भूखा सोता है, तो मैं उस रात खाना नहीं खाता!”

भोजन करने से पहले गुरुदेव आंखें बंद करके यह देखते थे, कि दुनिया भर में फैले उनके आध्यात्मिक परिवार ने खाना खा लिया या नहीं। जिस दिन गुरुदेव यह महसूस करते कि परिवार का कोई सदस्य अनायास ही भूखा सो गया है, तो वह भोजन करने से इंकार कर देते। संभवतः अपने हिस्से का भोजन उन्हें देकर, उनसे आध्यात्मिक रूप से जुड़े लोगों की नियति बदलने का यह उनका अपना तरीका था।

सरलता और अखंडता

किसी ने एक बार कहा था, “एक महान व्यक्ति कभी भी अपनी महानता का बखान नहीं करता है”, और गुरुदेव पर यह कथन पूरी तरह से लागू होता है। आध्यात्मिक रूप से महान होने के बावजूद, गुरुदेव की सरलता और विनम्रता बेमिसाल थी। वह एक असाधारण गुरु होने के बावजूद एक साधारण व्यक्ति की तरह व्यवहार करते थे। आमतौर पर, गुरुदेव की सादगी के चलते लोग उनकी हकीकत नहीं जान पाते थे।

विवाह योग्य गुरुदेव के लिए जब तक उनकी माताजी वधू तलाशतीं, एक कचरा उठाने वाले ने गुरुदेव के अनेक उपकारों के बदले में उनके लिए उपयुक्त वधू तलाशने की पेशकश की। उसका मानना ​​था कि गुरुदेव इतने मासूम (सरल) हैं कि अपनी दुल्हन की तलाश खुद नहीं कर सकते! इसी तरह गुरुदेव के मित्र भी यह सोच नहीं सकते थे कि उनके जैसा औसत इंसान, आध्यात्मिक गुरु बनकर कइयों के जीवन बदल देगा।

गुरुदेव के अधीन शिष्यता के दौरान कुछ वर्षों में, मैंने जाना कि उनकी सादगी हालांकि स्वाभाविक थी, परन्तु कालान्तर में यह अनावश्यक ध्यान हटाने का एक प्रभावी उपकरण बन गई।

एक बार जब गुरुदेव और मैं लखनऊ में एक फिल्म थिएटर के पास टैक्सी का इंतजार कर रहे थे, एक आदमी गुरुदेव के पास गया और बोला, “भाई साहब कितना बजा है?” मैंने देखा कि वह आदमी स्थान पर आने वाले शिष्यों और भक्तों को पहनाया जाने वाला तांबे का कड़ा पहने हुए है। मैं समझ गया था कि इस आदमी ने गुरुदेव को नहीं पहचाना है। जैसे ही मैंने उस व्यक्ति को यह बताना चाहा कि वह इस वक्त किसके साथ खड़ा है, गुरुदेव ने मेरी कलाई को हल्के से छूकर मुझे चुप रहने के लिए कहा। अपनी घड़ी मिलाने के बाद, आदमी ने गुरुदेव को धन्यवाद दिया और अपने रास्ते चला गया।

अपनी सादगी के अलावा, गुरुदेव बेहद ईमानदार व्यक्ति थे। वह हरदम कहते थे कि इंसान को अपनी रोजी-रोटी कठोर परिश्रम से कमानी चाहिए। उन्होंने एक बार कहा था, “ईमानदारी से कमाए गए धन का उपयोग अच्छे कामों के लिए होता है। बेईमानी से कमाया गया धन गलत कार्यों में खर्च हो जाता है।”

1984 में जब गुरुदेव ने हिमगिरी चैरिटेबल ट्रस्ट का गठन किया, तब संतलाल जी ने ट्रस्ट को पैसा देने के इरादे से 2 करोड़ रुपए की लॉटरी का टिकट खरीदा। उन्होंने टिकट गुरुदेव के चरणों में रखकर उनसे आशीर्वाद देने का अनुरोध किया। उनका मानना था कि धन का उपयोग ट्रस्ट की परोपकारी गतिविधियों के लिए किया जा सकता है। गुरुदेव मुस्कुराए, लेकिन कहा कुछ नहीं। गुरुदेव की मुस्कुराहट को संतलाल जी उनका आशीर्वाद समझ बैठे, लेकिन जब उन्हें बम्पर पुरस्कार नहीं मिला तो वे खिन्न हो गए।

जब वह गुड़गांव लौटे, तो गुरुदेव ने कहा, “पुत्त, यह ट्रस्ट पैसा बनाने के लिए नहीं बल्कि दूसरों की सेवा करने के लिए बनाया गया है। मैं चाहता हूं कि मेरे शिष्य अपनी मेहनत से कमाए गए धन के साथ सेवा में योगदान दें, न कि लॉटरी के जरिए। याद रखें कि हम फकीर हैं, जुआरी नहीं।”

गुरुदेव ने मितव्ययता से परिपूर्ण आध्यात्मिक मार्ग को चुना। अपनी शक्तियों का उपयोग करके, वह एक ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जी सकते थे, लेकिन उन्होंने सरलता और अतिसूक्ष्मवाद को प्राथमिकता दी। उन्होंने ऐसी परिस्थितियों का चयन किया, जिनके साथ निर्वाह कर पाना हम में से अधिकांश के लिए मुश्किल होता। 1980 के दशक के मध्य तक, वे दर्जनों लोगों के साथ एक ही शौचालय का इस्तेमाल करते रहे। एक फिएट कार और 250 वर्ग गज की संपत्ति, जो ज़्यादातर लोगों के लिए रोज़मर्रा की जरूरत समझी जा सकती है, वे भी उनके लिए कोई मायने नहीं रखती थीं।

1980 के मध्य में, जब गुरुदेव मुंबई के आधिकारिक दौरे पर आए, तब उनके शिष्यों, भक्तों और अनुयायियों की संख्या तेजी से बढ़ चुकी थी। हवाई अड्डे से उन्हें ले जाने के लिए कारों का लंबा काफिला इंतज़ार कर रहा था। हवाई अड्डे से बाहर निकलने पर, गुरुदेव उन लोगों से गर्मजोशी से मिले, जो उनका स्वागत करने के लिए आए थे, लेकिन हवाई अड्डे से अपने गंतव्य तक जाने के लिए उन्होंने आरामदायक कार की बजाय अपने शिष्य, मुंबई के एक होनहार पुलिस अधिकारी उद्धव कीर्तिकर की मोटरसाइकिल को चुना।

Uddhav ji with Gurudev

पुलिसकर्मी उद्धव कीर्तिकर के साथ मुंबई एयरपोर्ट से जाते गुरुदेव

जब एक अमीर भक्त ने गुरुदेव से उपहार के रूप में एक बीएमडब्ल्यू कार स्वीकार करने पर जोर दिया, तो गुरुदेव ने इसे स्वीकार कर लिया लेकिन कुछ मिनट बाद उसी भक्त को यह कार वापस भेंट कर दी!

सबसे पहले, वह दो पहियों की साइकिल पर अपने काम पर जाते थे। फिर वह मोटर चालित दो पहियों वाले स्कूटर से जाने लगे। आखिरकार, जब उनकी वहन क्षमता बढ़ी, तो उन्होंने चार पहियों की एक फिएट कार खरीदी।

दया और सहानुभूति

गुरुदेव का व्यवहार सभी के प्रति सम्मानपूर्ण था। उनकी मदद और मार्गदर्शन की अभिलाषा से स्थान पर आने वाले लोगों के प्रति वह विनम्र, धैर्यवान और दयालु थे। वास्तव में, वह इतने दयालु और स्नेही थे कि हर किसी को लगता कि दूसरों की अपेक्षा वह उसकी अधिक परवाह करते हैं।

स्थान पर आने वाले लोगों की धार्मिक आस्थाओं के प्रति गुरुदेव सदैव सचेत रहते थे। उनकी सहिष्णुता, करुणा और विनम्रता ने उनके संपर्क में आने वाले सभी लोगों पर एक अमिट छाप छोड़ी।

एक बार गुरुदेव ने एक शिष्य से कहा था, “मेरा काम स्थान पर आने वाले सभी लोगों की सेवा करना है, इससे फर्क नहीं पड़ता कि वे मेरे बारे में क्या महसूस करते हैं अथवा मेरे साथ कैसा व्यवहार करते हैं।”

वास्तव में, यदि कभी कोई गुरुदेव के प्रति असभ्य या कठोर व्यवहार करता, तो भी वह अपना शांत भाव कभी नहीं त्यागते थे। निक्कू जी कहते हैं, “गुरुदेव अत्यन्त क्षमाशील थे। मैंने कभी नहीं देखा कि उन्होंने कभी क्षमादान न किया हो। यदि नकारात्मक भावनाओं वाला व्यक्ति उससे मिलने आता, तो भी वह कभी भेदभाव नहीं करते। वह उसी प्यार और करुणा से उस व्यक्ति की समस्याओं का समाधान करते। मुझे लगता है कि यह सबसे मुश्किल काम है। यदि कोई हमें गाली देता है, तो हम उसी क्षण उस व्यक्ति से लड़ने को तैयार हो जाते हैं। लेकिन गुरुदेव ऐसे नहीं थे। उनके लिए हर व्यक्ति समान था।”

वह पुरुषों में आध्यात्मिक सम्राट थे! ऐसा कब कोई दूसरा अवतरित होगा?

गुरुदेव न केवल आत्मिक समानता में विश्वास रखते थे, बल्कि उन्होंने अपना सेवा कार्य भी वैराग्य भाव से किया। उनकी कुछ पसंदीदा लाइनें थीं,

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मैं सबका हूं। सब मेरे हैं।
लेकिन मैं किसी का नहीं। मेरा कोई नहीं।

वैराग्य और रोल प्ले

गुरुदेव ने अपनी भूमिकाएं पूर्णता के साथ निभाईं। उन्होंने हमें विश्वास दिलाया कि वह हमें दूसरों से ज्यादा प्यार करते हैं। पर सच्चाई यह है कि वह सभी से समान रूप से प्यार करते थे, लेकिन भावहीन होकर। उन्हें देखकर मैंने सीखा कि हमें अपने रिश्तों को कर्तव्यों के आधार पर निभाना चाहिए, और यह बहुत बड़ी सीख थी!

अनासक्ति के अभ्यास के परिणामस्वरूप सेवाकार्य एक आदत बन गई। इसका मतलब है कि सेवा कार्य करते हुए हम भावनाओं से परे जा चुके थे। इसके करने में न कोई दर्द था और न ही करने पर कोई खुशी महसूस हो रही थी। यह एक कर्तव्य था, जिसे बिना भावना के और अत्यंत विनम्रता के साथ निभाया जाना था।

एक अनूठे गुरु होने के नाते, गुरुदेव ने हमें स्थान पर मदद की उम्मीद में आए लोगों के प्रति आभार व्यक्त करने की सलाह दी। उनके अनुसार, इन असंख्य स्त्रियों और पुरुषों ने हमें सेवा करने का अवसर प्रदान किया, जिससे हमारे आध्यात्मिक विकास में मदद मिली। निश्चित रूप से, इसके लिए हमें उनका आभारी होना चाहिए।

एक महागुरु के रूप में, उन्होंने हमारी गलतियों एवं हमारे अतीत की त्रुटियों को भी स्वीकारा। उन्होंने मुखर होकर अपनी नाराजगी व्यक्त की और शांतिपूर्वक हमारे व्यवहार को ठीक किया। वह हर रात क्षमादान करते थे। स्वीकृति हर दिन आती थी। हालांकि, इस नियम के अपवाद भी थे। कभी-कभी हमें सीधा करने के लिए वे हमारे कान भी खींचते। पर ऐसा बहुत कम होता था, लेकिन वे उन लोगों को सजा जरूर देते थे, जिन्हें अपना मानते थे। मल्होत्रा ​​जी, राजपाल जी, संतलाल जी, गिरि जी और मुझे इस विशेषाधिकार समुदाय का सदस्य होने का गौरव हासिल है। मुझे यकीन है कि कई और लोग भी होंगे जिन्होंने शायद इस तरह के अपने अनुभव मेरे साथ साझा न किए हों।

गुरुदेव सरल जीवन और उच्च विचार के ध्वजवाहक थे। उन्होंने वही जीवन जिया, जिसका वे उपदेश देते थे। उनकी वाणी और कर्म उन लोगों के लिए एक आध्यात्मिक पथप्रदर्शक के रूप में काम करते रहेंगे, जिन्हें स्वयं की तलाश है।