सामाजिक स्वच्छता

आभार एवं उपकार

मृत्यु से कुछ महीने पहले, गुरुदेव ने अपनी सबसे बड़ी बेटी रेणु को बताया कि वह उसे और अपने अन्य बच्चों को स्थान की हर ज़िम्मेदारी से मुक्त कर, उन्हें अपने खांडसा फार्म में गायों की देखभाल करने की जिम्मेदारी सौंप रहे हैं। जिनके नाम उन्होंने हिंदू देवियों के नाम पर रखे थे और वह उनसे लगातार बात करते थे, विशेषकर दूध निकालते वक्त। प्रतिक्रियास्वरूप उनका रंभाना यह सुनिश्चित करता था कि संवाद परस्पर था।

खेत में रोजाना उनके साथ कई घंटे बिताने वाले पहलवान जी याद करते हैं कि कैसे गुरुदेव उस समय पाठ करने चले गए थे, जब उन्होंने फार्म में नियमित रूप से उछल कूद मचाने वाले एक बंदर के नवजात बच्चे की मौत की खबर सुनी। महागुरु ने उसके मृत बच्चे को अगले जन्म में मानव रूप दिया क्योंकि उसकी मां नियमित रूप से अपनी उछल-कूद से गुरुदेव का मनोरंजन करती थी। एक अन्य अवसर पर, गुरुदेव एक सांप के अनुरोध पर उसे तांत्रिक की कैद से मुक्ति दिलाने के लिए सहमत हुए। गुरुदेव ने सांप को मारकर उसका विधिपूर्वक अंतिम संस्कार कर दिया और उसे बच्ची के रूप में मानव योनि में जन्म लेने की अनुमति दे दी, जो बिट्टू जी के शब्दों में बहुत ही खूबसूरत बच्ची थी। इतनी खूबसूरत बच्ची उन्होंने पहले कभी नहीं देखी थी। अपनी सेवा करने वालों या मदद मांगने वालों के प्रति महागुरु की अनुकंपा अद्भुत थी, चाहे वे जानवर ही क्यों ना थे।

कृतज्ञता गुरुदेव की सामाजिक स्वच्छता का अभिन्न अंग था और ऐसा लगता है कि बचपन में ही उनमें इसके बीज अंकुरित हो गए थे। उनके मन में रहस्यवाद के प्रति आदर का भाव पनपने के पीछे शायद उस दरगाह के फकीर की कृतज्ञता थी, जहां से उन्होंने और उनके दोस्त सुभाष जी ने बचपन में बेर चुराए थे। भले ही गुरुदेव अपने गुरु के बारे में बहुत कम बात करते थे, वो उनकी मौजूदगी को लेकर हमेशा सचेत रहते थे। असल में महाशिवरात्रि और गुरुपूर्णिमा के अवसर पर उन्होंने स्वयं माला पहनने की बजाय स्थान पर माला चढ़ाने को प्रमुखता दी क्योंकि वह इसे अपने गुरु के निवास के रूप में संबोधित करते थे। अपने गुरु से अधिक माला पहनना उनकी सोच के अनुरूप नहीं था।

गुरु होने के नाते, कृतज्ञता एक ऐसा साधन था, जिससे वह सेवादारों के आभार से स्वयं को मुक्त रखते थे। अपने शिष्यों और अन्य सहयोगियों के साथ, वे सेवादार थे, सेवा लेने वाले नहीं। बिट्टू जी स्नेहपूर्वक याद करते हैं कि रेणुका की सर्द सुबह में तड़के तीन बजे उनके गुरु, उनके लिए ताजा चाय बनाकर उन्हें पीने के लिए उठाते थे। महान गुरु ने जिस तरह उनकी कार की डिक्की से कपड़ों से भरे बोरे को उतारने में मदद की थी, उसे याद करते हुए राजी जी की आंखें नम हो जाती हैं। शिविरों में, महागुरु के हाथ का बना नाश्ता खाकर, गुरुदेव के बॉस प्रताप सिंह जी को अपना जीवन धन्य लगता है। वयोवृद्ध रुद्र जी को गुरुदेव अपना साला मानते थे, ना कम ना ज्यादा। रुद्र जी का आज तक ये मानना है कि इस दुनिया में उन्हें सबसे अधिक सम्मान देने वाले व्यक्ति उनकी बहन के पति थे। संतलाल जी उस समय को याद करते हैं जब गुरुदेव दुर्घटना के बाद स्वस्थ लाभ कर रही माताजी से मिलने सोनीपत के स्थान पर आए थे। अपनी पत्नी के साथ समय बिताने के बजाय, महागुरु ने अपने खेत की देखभाल करने वाले के गरीब और बूढ़े माता-पिता से मिलने का फैसला किया, केवल इसलिए कि कुछ महीनों पहले, उस मजदूर ने गुरुदेव की अगली सोनीपत यात्रा के दौरान उनसे मिलने का अनुरोध किया था। दबी जुबान में किए गए अनुरोधों को मुखरता से सम्मानित किया गया!

समाज-केन्द्रित मान्यताएं

उनकी सामाजिक स्वच्छता का एक और पहलू समाज-केंद्रित मान्यताओं का सम्मान करना था। वह हम में से अधिकांश लोगों से बेहतर जानते थे कि लोगों का दुनिया को देखने का नज़रिया, उनकी कंडीशनिंग और परवरिश के आधार पर होता है।

वह जानते थे कि सिख धार्मिक रूप से धूम्रपान के खिलाफ हैं, इसलिए अगर सिगरेट पीते वक्त कोई सिख उनकी तरफ आ जाता तो वो अपनी सिगरेट तुरंत बुझा देते। यद्यपि वह अपने शिष्यों को शाकाहारी भोजन करने के लिए कहते थे, लेकिन पश्चिम बंगाल के लोगों का मुख्य भोजन मछली होने के कारण उन्होंने उन्हें कभी-कभी मछली खाने से नहीं रोका। शराब आपको मानसिक रूप से शिथिल कर देती है, इसलिए उन्होंने इससे परहेज करने की सलाह दी। उन्होंने बिल्लू जी जैसे भक्तों को कोशिश करने के बावजूद शराब न छोड़ पाने के कारण कई बार डांट लगाई। वह अपने भक्तों या शिष्यों को नशे की हालत में स्थान आने की इजाज़त नहीं देते थे। जानबूझकर ऐसा काम करने वालों को गुरु की अवहेलना पर क्रोध का सामना करना पड़ा। महागुरु की कार्यपद्धति लचीली थी, लेकिन उनकी सोच सिद्धांतों पर आधारित थी।

पारम्परिक सामाजिक के ढांचे के भीतर, वह लीक से हटकर सोचते थे। वह दहेज के खिलाफ थे क्योंकि उनका मानना था कि शादी या कन्यादान में बेटी को देना, सेवा के उच्च रूपों में से एक है। दुल्हन के पिता को अपनी जीवन भर की कमाई से वंचित न होना पड़े, इसलिए वह स्वयं (और कभी-कभी अपने शिष्यों के साथ) उसके साजो-सामान में योगदान देते थे।

एक ऐसे युग में, जहां भारतीय महिलाओं को केवल बेटियों, पत्नियों और माताओं के रूप में देखा जाता था, उन्होंने उन्हें स्वतंत्र और बराबरी का दर्जा दिया। उनकी पत्नी पेशे से एक योग्य स्कूली शिक्षिका थीं और गृहस्थी के खर्चों में बराबर योगदान करती थीं। यद्यपि गृहस्थ आश्रम उनका निर्धारित मार्ग था, पर उन्होंने महिलाओं के जल्दी शादी करने पर जोर नहीं दिया। उनके लिए विवाह का मतलब था एक दूसरे का साथ, ना कि कोई बाध्यता।

उन्होंने हमेशा हमें उन लोगों के प्रति आभारी होने के लिए कहा जिन्होंने हमें उनकी सेवा करने का अवसर दिया। इस अवधारणा ने, सेवा के बारे में मेरे विचार को पुनः परिभाषित किया। मैं केवल इसलिए सेवा कर सका क्योंकि दूसरे ने हमें यह अवसर दिया, इस विचार ने “मैं” और “आप” के बीच के मानसिक विभाजन को खत्म कर दिया, जिससे एकता की भावना का जन्म हुआ।