आर्थिक स्वच्छता

Gurudev - the guru of gurus

महागुरु ऋणमुक्त जीवन जीने के बहुत बड़े हिमायती थे। वे ऐसी कोई चीज़ नहीं स्वीकार करते, जिसे खरीदने में वे समर्थ नहीं थे। वह उस अनाज और नमक को कभी नहीं खाते या स्वीकार करते, जिसकी कीमत किसी और ने चुकाई हो, क्योंकि भोजन भौतिक शरीर का पोषक है। हालांकि, कुछ घटनाओं ने मुझे इस बात का एहसास कराया कि महागुरु आभार से ज्यादा मंशा को महत्व देते थे।

बिट्टू जी ने गुरुदेव के साथ उनके शिविर से करनाल होते हुए गुड़गांव तक की यात्रा के अपने अनुभव साझा किए। रात में ड्राइविंग करने में असहज महसूस कर रहे गुरु के ड्राइवर कस्तूरी ने रास्ते में पड़ने वाले गैस स्टेशन पर रात बिताने का अनुरोध किया। गैस स्टेशन कस्तूरी का रिश्तेदार चलाता था और उसे पता था कि उनके गुरु को वहां कोई तकलीफ नहीं होगी।

गुरुदेव वहां रात के 11 बजे पहुंचे और उन्होंने सभी को बता दिया कि वे अगली सुबह 6 बजे निकलेंगे। गुरुदेव के निकलने के निर्धारित समय से लगभग एक घंटे पहले, गैस स्टेशन के मालिक का परिवार गर्म पूरियां, चाय और ताज़ी सब्ज़ी के नाश्ते के साथ पहुंच गया। नाश्ता बहुत लुभावना था, लेकिन गुरु के शिष्यों ने विरोध किया क्योंकि वे एहसान नहीं लेना चाहते थे। हालांकि, महागुरु ने प्रसन्नतापूर्वक नाश्ते का आनंद लिया, जिससे मालिक को अच्छा लगा। वह जानते थे कि इतने सारे लोगों का नाश्ता पकाने के लिए, परिवार सुबह 3 बजे जागा होगा और लगभग 4 बजे तक काम किया होगा, फिर समय पर पहुंचने के लिए एक घंटे पहले घर से निकला होगा। उन्होंने नाश्ते के लिए कोई भुगतान नहीं किया, लेकिन निश्चित रूप से अपने शिष्यों को भक्ति का सम्मान नहीं करने और नीयत के ऊपर एहसान को महत्व देने के लिए फटकार लगाई।

दशकों पहले, जब मैं कैब से यहां-वहां घूमने के बाद आखिरकार मुंगावली शिविर पहुंचा, तो मैं रात का खाना खत्म कर रहे गुरुदेव और कुछ सह-शिष्यों से मिला। मैंने रेलवे स्टेशन से पकोड़े का एक पैकेट लिया था। चूंकि टैक्सी ड्राइवर के कारण मैं शाम की बजाय रात को शिविर पर पहुंचा, इसलिए मैंने पकोड़ों को चुपचाप एक तरफ रख दिया। अगली सुबह जागने पर जब मैं उस शिविर की ओर गया, जहां भोजन परोसा जाता था, तो मैंने गुरुदेव को पकोड़ों को उलट-पुलट करते और खाते देखा। उनका अभिवादन करने के बाद, मैंने उनसे कहा कि चूंकि मैंने ये पकोड़े खरीदे हैं इसलिए उन्हें मुझे इसका भुगतान करना होगा। उन्होंने जवाब दिया, “क्या ऐसा है?” और जाते-जाते एक और खा लिया। सुबह-सुबह एक महान गुरु की कही गई यह बात आपको सोच के भंवर में डाल सकती है। पकोड़े खरीदते समय मैंने सोचा था कि यह गुरुदेव खरीद रहे हैं, मैं नहीं। गुरुदेव द्वारा ठंडे पकोड़े खाने से मुझे ये एहसास हुआ कि यह उनके प्रति पूर्ण समर्पण रखने के एवज में उनके प्रतिदान का तरीका था।

चोरी भले ही छोटी-सी क्यों ना हो, उसके पुनर्भुगतान के लिए सजा निश्चित थी! एक बार जब मैं उनसे बात कर रहा था और गुरुदेव ऑफिस जाने के लिए तैयार थे, तो उन्होंने अपने बटुए को देखा, उसमें से कुछ पैसे गायब थे। उन्होंने बुदबुदाते हुए लापरवाही से उस व्यक्ति का नाम लिया, जिसने शायद पैसे चुराए थे। मैंने उनसे पूछा कि वे दोषियों को क्यों नहीं बुला रहे हैं। उन्होंने कहा कि इसकी जरूरत नहीं है क्योंकि वह व्यक्ति अपनी सेवा के पुण्य का कुछ हिस्सा खो देगा। चुराई गई रकम बहुत छोटी थी, लेकिन सेवा के वर्षों में महीनों का नुकसान, उसके बदले में कहीं ज्यादा था!

मुझे व्यक्तिगत रूप से गुड़गांव में खोने, मुंबई में पाने का अनुभव हुआ है। यह इस तरह हुआ, जब गुरुदेव ने मुझे और मेरी पत्नी को हैदराबाद में शादी में शामिल होने के लिए उनके साथ हवाई जहाज से चलने के लिए कहा। मेरे पास छह हजार रुपए नकद थे, उस समय प्लास्टिक मनी भी चलन में नहीं थी। चूंकि उस यात्रा में होने वाला खर्च मेरे सामर्थ्य से ज्यादा था, इसलिए मैंने गुरुदेव को एक संदेश भेजकर उनसे अनुरोध किया कि वे हमें ट्रेन से यात्रा करने की अनुमति दें। मुझे पूरे दिन उनका कोई जवाब नहीं मिला, लेकिन मैंने देखा कि मेरा बटुआ गायब हो गया है। माफी मांगने और माफी पाने के लिए गुरुदेव के पास जाने पर, मैंने उनकी आंखों में शरारत की एक झलक देखी। उन्होंने मुझसे कहा कि मुझे उनके निर्देशों का विश्लेषण करने की बजाय हमेशा उनका पालन करना चाहिए। कुछ दिनों बाद, मुझे मुंबई में घर पर अपने ब्लेज़र की जेब में छह हजार रुपए मिले। वाह! महागुरु किसी भी स्थिति को अपने अनुरूप ढाल सकते थे और वे एक कागज के नोट को भी ओरिगामी की तरह इस्तेमाल कर सकते थे! (ओरिगामी – कागज आदि मोड़कर चिड़िया बनाने की जापानी कला।)

गुरुदेव जब पहली हरिआना से दिल्ली आए, तो जीविका चलाने के लिए उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा। कई बार दो केले खरीदने जितना पैसा कमाने के लिए उन्होंने टॉफी, पेन और बस टिकट के बेचे। मुश्किलों के बावजूद, उनके सिद्धान्त अटल थे कि धन अर्जित करना है, गलत ढंग से नहीं कमाना है। बीस वर्ष की उम्र में, उन्हें एक मृदा सर्वेक्षणकर्ता की नौकरी मिल गई और वे उत्तर भारत के पहाड़ी इलाकों के शिविरों में कई महीने बिताने लगे। उनके सहयोगी-सह-भक्त, नागपाल जी कहते हैं, “वह मिट्टी के नमूनों की जांच करने के लिए जमीन के हर हिस्से में जाते थे। मुश्किल इलाकों में जाने में भी उन्हें परेशानी नहीं होती थी। जब तक वह स्वयं मिट्टी के नमूने का विश्लेषण नहीं कर लेते, उस पर रिपोर्ट नहीं लिखते।” महागुरु ने अपने वेतन के साथ न्याय किया और कभी काम के साथ समझौता नहीं किया। जिसे भी लगता है कि महागुरुओं को आसानी से सब कुछ प्राप्त हो जाता है, उन्हें गुरुदेव के जीवन को जानना और समझना चाहिए।

कठोर परिश्रम के बाद, महीने के अंत में उन्हें मिलने वाला वेतन बहुत कम होता था। उनका शुरुआती वेतन महज 150 रुपए प्रति माह था। फिर भी महागुरु वेतन के दिन ही, अपने वेतन का महत्वपूर्ण हिस्सा जरूरतमंदों को दे देते। ऐसे लोगों के चयन की कोई प्रक्रिया नहीं थी, बस वो उतना पैसा उनको दे देते, जितना उन्हें लगता कि वह उनकी जरूरतों को पूरा कर देगा। उनके अलावा, मैंने किसी के भी बारे में ऐसा नहीं सुना जो महीने भर के अथक परिश्रम के बाद वेतन के दिन ही अपने वेतन को बांट देता हो! हालांकि, जैसे-जैसे महागुरु का परिवार बढ़ा, उनके शिष्यों ने उनकी पत्नी को वेतन का कम से कम पचास प्रतिशत देने के तरीके खोज लिए।

गुरुदेव धन को आध्यात्मिकता का साधन मानते थे न कि अहमियत का पैमाना। उन्होंने शायद ही कभी खुद पर पैसा खर्च किया हो और चाहते थे कि उनके शिष्य इसका मूल्य समझें। जब बिट्टू जी ने अपने गुरु को भोजन परोसने के लिए एक महंगी ट्रे खरीदी, तो वह बहुत चिढ़ गए। महानगुरु ने उन्हें डांटते हुए कहा, “यह आडंबरपूर्ण और विलासिता है, यह हमारे स्वभाव में नहीं है। हमें सादगी को महत्व देना चाहिए ना कि दिखावे को।” यहां तक ​​कि ट्रे जैसी साधारण वस्तु, जिसे घर की रसोई के लिए जरूरी माना जाता है, को भी गुरु ने विलासिता के प्रतीक के रूप में लिया। मितव्ययिता को उनके शब्दकोश में एक नया अर्थ मिला।

उन्होंने हमेशा हमें बताया, उचित तरीकों से कमाए गए धन का सदुपयोग होगा, जबकि अनुचित साधनों से अर्जित धन बेकार के कामों में बर्बाद हो जाएगा। जब संतलालजी ने लॉटरी के दो टिकट खरीदे और लॉटरी जीतने के स्वार्थपूर्ण इरादे से उन्होंने इसे आशीर्वाद के लिए गुरुदेव को दिए, तब उनका कहना था कि लॉटरी जीतने पर मिलने वाला पैसा स्थान का प्रबंधन करने के लिए महागुरु द्वारा बनाए गए हिमगिरि ट्रस्ट में चला जाएगा। महागुरु ने टिकट के दो टुकड़े करते हुए कहा, “मैं अपने शिष्यों को अपनी लॉटरी मानता हूं। ट्रस्ट के माध्यम से जो भी सेवा होती है वह उनकी मेहनत से अर्जित धन से होगी, क्योंकि मैंने उन्हें अपनी सेवा अर्जित करने के लिए सक्षम किया है।”

उन्होंने हमेशा दूसरों की सेवा के लिए ही हमें स्थान पर पैसा खर्च करने की अनुमति दी। जब लोग उनसे मिलने आते थे, उन दिनों में खर्च बढ़ जाता था, तब कुछ शिष्यों को उसमें योगदान करने की अनुमति थी। उन्होंने अपने स्थान पर कई शादी समारोह आयोजित किए, हालांकि ये आयोजन साधारण होते थे, लेकिन उसमें हम में से कुछ को न्यूनतम योगदान करने की अनुमति दी गई। बहुत से संपन्न लोग जन कल्याण या गुरुदेव पर खर्च करके खुश होते। लेकिन उन्होंने उन्हें तवज्ज़ो नहीं दी और बैरंग वापस लौटा दिया। स्थान आने वाले लोगों की शुभकामनाओं का स्वागत किया गया, लेकिन उनसे धन और उपहार स्वीकार नहीं किए गए।

उनके शिष्य और भक्त जीवन के विभिन्न क्षेत्रों तथा भिन्न आय वर्ग से आए थे। लेकिन, उन्होंने हमेशा सभी को उनके आध्यात्मिक इरादे से मापा और उनका आंकलन भविष्य की निरंतरता में किया, न कि उनकी वर्तमान स्थिति से, जैसा कि वह खुद को समझते थे। स्थान पर, बस चालकों और व्यापारियों को समान माना जाता था। जब महान गुरु गुड़गांव के सेक्टर 10 में स्थान का निर्माण कर रहे थे, तो उन्होंने अपने शिष्यों से उसमें योगदान करने के लिए कहा। मदद और उपचार के लिए एक शक्तिशाली केंद्र के निर्माण में भाग लेना यज्ञ के समान है – भक्तिभाव से दी गई आहुति। जिन्हें निर्माण में योगदान करने की अनुमति दी गई, उनमें आर्थिक रूप से कम सक्षम लोगों से 100 रुपए का योगदान करने के लिए कहा गया, जबकि बाकी थोड़ा और योगदान दे सकते थे। भले ही योगदान सामर्थ्य के अनुसार था, लेकिन सेवा का लाभ बराबर था।

एक बार एक सिख सज्जन अपने पुराने सिरदर्द के ठीक हो जाने की उम्मीद लेकर गुरुदेव से मिलने आए। महागुरु ने उनसे कहा, “बेटा, मैं तुम्हें तुरंत ठीक कर दूंगा, लेकिन तुम्हें अब से मांसाहार और शराब से दूर रहना होगा।” दो हफ्ते बाद, यह आदमी ब्रीफकेस में एक लाख रुपए की नकदी लेकर वापस आया। उसने गुरु को साष्टांग प्रणाम किया और ब्रीफकेस उनके चरणों में रख दिया और उसे आभार स्वरूप स्वीकार करने का अनुरोध किया। अप्रभावित गुरु ने उसकी आंखों में देखते हुआ कहा, “जैसे ही मैं अटैची को छूऊंगा, तुम्हारा सिरदर्द वापस आ जाएगा। सेवा करना मेरा कर्तव्य है, मेरा व्यवसाय नहीं।” सिख ने झेंपते हुए महागुरु का धन्यवाद किया और अपना बिन खुला ब्रीफकेस लेकर घर लौट गया।

महागुरु, धन का लालच, धन के लिए लोगों को धोखा देने या उन्हें व्यापार या पैसों के लालच में फंसाने जैसी घृणित आदतों के सख्त खिलाफ़ थे। गुरुदेव के एक वरिष्ठ शिष्य को अपने ननिहाल से विरासत में कुछ संपत्ति मिली थी, लेकिन अधिक के लालच में वह घरेलू राजनीति करने के लिए तैयार थे। उनकी तुच्छता कुछ अन्य छोटी-छोटी बातों से भी स्पष्ट होती थी। यह अद्भुत महागुरु इस बात से पूरी तरह भिज्ञ था कि ऐसा अवगुणी व्यक्ति, आने वाले समय में उनके सबसे निपुण शिष्यों में से एक बन जाएगा। उन्हें पता था कि शिष्य की आदत में सुधार की आवश्यकता है और इसलिए उन्होंने उसे पैसे की उपयोगिता और मूल्यहीनता के बीच के अंतर को सूक्ष्मता से समझाया। उन्होंने अपने शिष्य से कहा, “धन के पीछे मत भागो, क्योंकि मैं तुम्हें इतना आध्यात्मिक धन दूंगा कि तुमको कभी भी इसकी कमी नहीं रहेगी।”

महागुरु की व्यावसायिक स्वच्छता की सूची में सम्पत्ति का दिखावा और जुआ भी प्रतिबंधित थे। दिवाली पर जब सबसे अधिक पैसे का दांव लगाए जाते हैं, तब उन्होंने हमें इसका सम्मान करना सिखाया, यह कहा कि यह लक्ष्मी (धन की देवी) से हमें बरकत का उपहार मिला है। धन का अनादर करना देवी की अवज्ञा करने के समान है।

उनके विचार में, हम जो धन स्वयं पर खर्च करते हैं या दूसरों को खुद पर खर्च करने की अनुमति देते हैं, उससे कर्ज बनता है, जबकि जो हम दूसरों की सेवा में खर्च करते हैं, उस कर्म से मिलने वाला लाभ हमारे खाते में जाता है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि पैसा आध्यात्मिक मंशा में मदद कर सकता है, लेकिन यह उसका विकल्प नहीं है। सेवा पर आपकी मासिक आय का 10% से 20% तक उपयोग करना महागुरु की सिफारिशों में से एक था।