पारिवारिक व्यक्ति
भाई
प्रलोभन में फंसकर
उन्होंने दिया उनका साथ
पिन्नी के बदले में
मानी उनकी हर बात
ऐसा था भाई-बहनों का प्यार
थोड़ी हंसी-खुशी, थोड़ा चमत्कार
गुरुदेव छह भाई-बहन थे। इनमें सबसे बड़ी थी गुरुदेव की बहन बिमला, जबकि उनके भाई सतीश और बहनें, सुदेश, रमेश, प्रेमलता और इंदिरा उनसे छोटे थे।
सतीश जी, जिन्हें हम प्यार से चाचा (पिता का छोटा भाई) कहते थे, अपने बड़े भाई का बहुत सम्मान करते थे। जब वे छोटे थे, तो उनकी मां गुरुदेव को उनकी शरारतों पर सजा के रूप में खाना नहीं देती थी। तब चाचा अपने भोजन से कुछ गुड़ और डबल-रोटी (रोटी) बचाकर अपने बड़े भाई को देते ताकि उन्हें भूखा न सोना पड़े, जिन्हें वे श्रद्धा से पापाजी (पंजाबी में बड़े भाई के लिए प्रयुक्त किया जाने वाला सम्मानपूर्वक संबोधन) कहते थे।
बड़े होकर चाचा अत्यन्त सुदर्शन व्यक्तित्व के मालिक बने, जिनकी आंखों में शरारत झलकती थी। गुरुदेव ने अपनी आध्यात्मिक शक्तियां अपने छोटे भाई को प्रदान की। गुरुदेव ने उन्हें हरिआना में सेवा करने, और गुड़गांव के खांडसा में खेतों की देखभाल करने का निर्देश दिया था।
भले ही चाचा बहुत शक्तिशाली अध्यात्मवादी थे, लेकिन उन्हें एक ‘कैज़ुअलिस्ट’ के रूप में देखा जा सकता है। अध्यात्मवाद के प्रति उनका अनौपचारिक दृष्टिकोण था, जिसने अनगिनत लोगों की मदद की और उन्हें स्वस्थ किया। वे कई गुप्त उपचारात्मक उपाय जानते थे, जिनमें एक ऐसा भी था जो बालों का रंग बनाने कंपनियों को व्यवसाय से बाहर कर सकता था। लेकिन इन कंपनियों के सौभाग्य से, सफेद बालों को काला करने का नुस्खा उनके साथ ही चला गया।
चाचा की आध्यात्मिक उदासीनता के कारण लोगों ने उनकी क्षमताओं को कम करके आंका। हरिआना में उनका पड़ोसी एक तांत्रिक (गुप्त विज्ञान, तंत्र शास्त्र का जानकार) था, जिसके पास एक ऐसी सिद्धि थी, जिससे वो आत्माओं को अपने वश में कर सकता था। चूंकि वह अपनी आजीविका कमाने के लिए इन आत्माओं का इस्तेमाल करता था, इसलिए जब उसने चाचा को निस्वार्थ भाव से लोगों की सेवा करते देखा, तो उसे चाचा अपने लिए खतरा लगे। गुस्से में, तांत्रिक ने चाचा और उनके परिवार को चोट पहुंचाने के लिए कुछ आत्माओं को भेजा। हालांकि, वे चाचा का कुछ बिगाड़ नहीं सकीं।
कुछ दिनों बाद, आत्माओं को बंदी बनाकर रखने वाली दो बोतलें टूट गईं।
इस घटना के बाद, तांत्रिक के छोटे बच्चे घर की छत पर खेते हुए गिर गए और उनकी मृत्यु हो गई। निश्चित रूप से उसकी कैद से मुक्त हुई आत्माओं का प्रतिशोध उसके वंश की समाप्ति का कारण बना। अपने भी ऐसे ही अंत के भय से घबराया हुआ वह तांत्रिक चाचा की शरण में गया और उनसे क्षमा याचना करने लगा। चाचा ने न सिर्फ उसे माफ कर दिया बल्कि उसके ही बनाए गए राक्षसों से उसे सुरक्षा प्रदान की और उसे जीवन का एक नया मार्ग दिखाया। तांत्रिक ने पैसे कमाने के लिए अपनी सिद्धि का इस्तेमाल करना बंद कर दिया और अधिक सात्विक गुणों पर ध्यान केंद्रित किया।
चाचा
वास्तव में, एक अन्य तांत्रिक चाचा के मस्तमौला मिजाज को गलत समझते हुए, उसे उनकी आध्यात्मिक कमजोरी समझ बैठा, लेकिन चाचा ने उसे ऐसा सबक सिखाया, जिसे वह कभी नहीं भूलेगा। इस तांत्रिक ने खांडसा फार्म में सिंचाई करने वाले पानी के पंप पर जादू कर दिया, जिससे उसमें खराबी आ गई। जब उसने मखौल उड़ाते हुए चाचा को चुनौती दी कि वह अपनी आध्यात्मिक शक्तियों का उपयोग करके पंप को ठीक करके दिखाए, तो चाचा ने पंप पर जल छिड़का और पंप आवाज करता हुआ चलने लगा। तांत्रिक कुएं की दीवार पर बैठा यह सब देख रहा था। वह पलटकर कुएं में गिर गया। आध्यात्मिक रूप से पराजित होने के बाद, रेंगते हुए वह कुएं से बाहर आया और उसने चाचा के पैरों में गिरकर दया की भीख मांगी। अपने मिजाज के अनुसार चाचा ने भी बड़े सहज रूप से उसे माफ कर दिया।
भले ही चाचा गुरुदेव के भाई थे, लेकिन उन्होंने कभी भी अपने रिश्ते को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल नहीं किया। उनकी विनम्रता और उनके मस्तमौला स्वभाव ने ही उनकी योग्यता को बढ़ाया। अपने बड़े भाई के गुस्से के अलावा उन्हें और कोई भी बात बेचैन नहीं करती थी।
जब चाचा बहुत बीमार थे, तो उन्हें पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च (PGI), चंडीगढ़ में भर्ती कराया गया था। गुरुदेव अपने छोटे भाई की देखभाल के लिए उनके साथ वहां मौजूद थे। गुरुदेव ने बारहवें दिन चंडीगढ़ छोड़ा, क्योंकि उन्हें गुरु पूर्णिमा के अवसर पर गुड़गांव में उपस्थित रहना था (एक आध्यात्मिक परंपरा जहां शिष्य, गुरु को अपने अहंकार का प्रतीकात्मक समर्पण करता है)। अपने प्रिय भाई से विदा लेते हुए गुरुदेव ने धीरे से कहा, “गुरु-पूजा (प्रार्थना) से पहले मत जाना।”
चाचा ने गुरु पूर्णिमा के ठीक दो दिन बाद 2 अगस्त 1988 को इस दुनिया को अलविदा कहा, जिससे उनके बड़े भाई की सेवा बाधित नहीं हुई। वे अपने पीछे पत्नी, स्नेहलता और दो बेटों, अजय और संजय को छोड़ गए। गुरुदेव के एक पुराने शिष्य हरीश जी, जो होशियारपुर में स्थान चलाते हैं, की मदद से स्नेहलता जी हरिआना में स्थान का संचालन करती हैं।
आइए, गुरुदेव की कहानी पर वापस लौटते हैं-उनकी छोटी बहनें बताती हैं कि एक युवा के रूप में, गुरुदेव का उनके घर में एक गणपति की प्रतिमा के साथ अजीब रिश्ता था। कभी-कभी, वे विनम्रता से मूर्ति की मदद मांगते, और यदि उनका कार्य पूरा नहीं होता तो वे उसे नष्ट करने की चेतावनी देते। प्रारंभ में, उनके परिवार ने गुरुदेव की बातों को उनकी अति-कल्पनाशीलता मानते हुए खारिज कर दिया, लेकिन समय के साथ यह स्पष्ट हो गया कि जो उन्हें नजर आता है, बात वहीं तक नहीं है, उस रिश्ते की बुनियाद कहीं ज्यादा गहरी थी।
एक बार भाई-बहनों के बीच आपसी नोक-झोंक हो गई। तब गुरुदेव ने गणपति की प्रतिमा से आने वाली परीक्षा में उनकी बड़ी बहन बिमला की असफलता सुनिश्चित करने के लिए कहा। उन्होंने यह भी घोषित किया कि अगर उनकी इच्छा पूरी हुई तो वे मिठाई बाँटेंगे। बिमला जी, जो आधी-आधी रात तक तेल के दिये की रोशनी में परीक्षा की तैयारी कर रही थीं, ने अपने पिता से शिकायत की, जिन्होंने गुरुदेव को इस तरह की बातें करने के लिए फटकार लगाई। हालाँकि, जब परिणाम घोषित हुआ, तो बिमला जी परीक्षा में फेल हो गई थीं। रोते हुए उन्होंने अपनी असफलता के लिए गुरुदेव को दोषी ठहराया। उनके पिता ने छड़ी से गुरुदेव की पिटाई की!
कुछ वर्षों बाद, एक अन्य प्रसंग में भी गणपति गुरुदेव के सहायक बनें।
पढ़ाई के प्रति अपने बेटे के उदासीन रवैये के कारण, गुरुदेव के माता-पिता ने चचेरी बहन के पति से उनके बेटे की पढ़ाई में मदद करने का अनुरोध किया। वह शख्स एक सख्त मिजाज इंसान था, जो पढ़ाई में दिलचस्पी न लेने वालों के साथ सख्ती से पेश आता था। उन्होंने गुरुदेव को सीधा करने का काम संभाला। लेकिन जल्द ही उन्हें पता चल गया कि उनका नया छात्र अपने तरीके बदलने के लिए तैयार नहीं है।
गुरुदेव के हठ से नाराज, और अपनी विफलता से परेशान होकर, चचेरी बहन के पति ने नाराजगी जताते हुए घोषणा कि आगामी परीक्षा में गुरुदेव सफल नहीं हो सकेंगे। उन्हें अपनी बात पर इतना विश्वास था कि उन्होंने यह भी कह दिया कि अगर गुरुदेव पास हो गए, तो पंजाब विश्वविद्यालय हमेशा के लिए बंद हो जाएगा। यह सुनकर, गुरुदेव गणपति की मूर्ति के पास गए और परीक्षा में असफल होने पर उसे तोड़ देने की धमकी दी। धमकी ने काम किया। गुरुदेव औसत अंकों के साथ परीक्षा में उत्तीर्ण हो गए और इस तरह एक मैट्रिक पास का जन्म हुआ।
गुरुदेव की छोटी बहनें उन्हें प्यार करने वाले खुशमिजाज बड़े भाई के रूप में याद करती हैं, जिनका व्यवहार उनके साथ बहुत अच्छा था। उनकी अपरिपक्व आध्यात्मिक शक्तियां से वे बिल्कुल भी प्रभावित नहीं थीं। जहां तक उनके रिश्तों का सवाल था, तो उनके लिए उनके भाई के हर कारनामे एक ‘मधुर’ परिणाम का जरिया थे।
उत्तर भारत की लोकप्रिय मिठाई है पिन्नी, जिसे खाने से आपका मोटापा बढ़ सकता है और शायद उम्र के साल घट सकते हैं। अधिकांश पंजाबियों की तरह, गुरुदेव की छोटी बहनें भी इन मिठाइयों को पसंद करती थीं। गुरुदेव उनकी कमजोरी का लाभ उठाते थे। वह उनसे कहते कि यदि वे उनका कहना मानेंगी तो वे उन्हें पिन्नियां देंगे, और बहनें उनके काम खुशी-खुशी कर देतीं।
अस्वास्थ्यकर मिठाई के प्रति अपने बच्चों के आकर्षण के प्रति सचेत गुरुदेव की मां घर की बनी पिन्नियों को अलमारी में बंद कर देती थीं और चाबी हरदम अपने साथ रखतीं। हालांकि आश्चर्यजनक रूप से गुरुदेव ताले में बिना चाबी लगाए इन पिन्नियों को निकाल लेते! लेकिन मां जब भी अलमारी खोलती, तो उन्हें वहां पूरी पिन्नियां मिलती, वे पिन्नियां भी वहां मौजूद होती जो गुरुदेव अपनी बहनों को खिला चुके होते थे। फिर भी, उनकी छोटी बहनें, बंद पड़ी अलमारी से पिन्नियों को बाहर निकालने के गुरुदेव के चमत्कारिक कृत्य को अपने बड़े भाई की अन्य चमत्कारिक कार्यों की लंबी सूची में से एक मानकर खारिज कर देतीं।
एक युवा लड़के के रूप में, गुरुदेव के अस्तित्व में देवत्व की पहचान अभी नहीं हुई थी, लेकिन उनकी कुछ क्षमताओं की झलक नजर आने लगी थी, जिनका भविष्य में इस्तेमाल किया जाना था, अपनी बहनों की भूख शांत करने के लिए नहीं, बल्कि अनगिनत लोगों के आध्यात्मिक विकास का नेतृत्व करने के लिए।
वर्षों तक, गुरुदेव की बहनें अपने भाई के गुरु बन जाने की खबर से अनजान रहीं। अकस्मात ही उन्हें अपने भाई के गुरु बन जाने की बात पता चली। चूंकि गुरुदेव की नौकरी में आधिकारिक दौरे होते थे, जो महीनों तक चलते थे, वह अपनी बहनों को अपने ठिकाने की सूचना देते हुए पत्र लिखते थे। 1976 की गर्मियों में, उन्हें अपने भाई से एक पत्र मिला, जिसमें उन्होंने बताया कि वे हिमाचल प्रदेश के कथोग में हैं।
गुरुदेव की बहन ने कथोग के बारे में कभी नहीं सुना था, उन्होंने अपनी एक सहपाठी दिलबाग से उस जगह के बारे में पूछा, जो ज्वालाजी से आई थी। दिलबाग ने उन्हें बताया कि कथोग में आए ‘ओम वाले बाबा’ (हथेली पर ओम वाले संत) के कारण उस जगह को हाल ही में प्रसिद्धि मिली है, जो वहां चिकित्सा के अविश्वसनीय चमत्कार कर रहे थे।
जब गुरुदेव गुड़गांव लौटते हुए हरिआना में थोड़ी देर के लिए रुके, तो उनकी बहन ने उनसे पूछा कि क्या वे ‘ओम वाले बाबा’ से मिले हैं। इसके बाद ही गुरुदेव ने खुलासा किया कि वे स्वयं ही ओम वाले बाबा हैं।
गुरुदेव अपने भाई-बहनों के जीवन की धुरी थे। एक ऐसे व्यक्ति जिसने उनका पालन-पोषण किया, उनके सुख-दुःख का ख्याल रखा और उनकी सुरक्षा की। उनके भाई और बहनें इस अविश्वसनीय यात्रा के साक्षी थे, जिसने हरिआना के छोटे से ’जादूगर’ को अकल्पनीय शक्तियों वाला गुरु बना दिया था।
पहले का << पुत्र
अगला >> बूढ़े बाबा