महागुरु

आध्यात्मिक वृक्ष का रोपण

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बीज जो बोये गए थे,
एक दिन बन गए वृक्षों से भरे वन।
जिन पौधों को प्यार से पाला था उन्होंने आगे चलकर वही बने
उनकी आध्यात्मिक विरासत के कल।

भाग्य ने गुरुदेव के मिशन को सुगम बनाया और उनकी आध्यात्मिक कहानी के उनके शुरुआती शिष्यों ने उनके साथ ही इस पृथ्वी पर जन्म लिया। मल्होत्रा जी, एफसी शर्मा जी, डॉ. शंकरनारायण जी, आर.पी.शर्मा जी, जैन साहब, आर.के. शर्मा जी और सूरज शर्मा जी उसी विभाग का हिस्सा बने, जहां गुरुदेव काम करते थे, जिससे उन्हें आपस में मिलने में आसानी हुई। अपने कार्यस्थल पर ही गुरुदेव ने अपने आध्यात्मिक परिवार के बीजारोपण की प्रक्रिया प्रारंभ की।

जब आपसी बातचीत में सहकर्मी अपने जीवन की परेशानियों का जिक्र करते, तो गुरुदेव मदद की पेशकश करते। जल्द ही उनके सेहत बख़्शने और भविष्यवाणी की शक्ति की बात कार्यालय में फैलने लगी और कार्यालय के लोग समस्याओं के समाधान के लिए उनसे संपर्क करने लगे।

उनमें से एक थीं श्रीमती सुशीला चौधरी।

चार साल की बच्ची की मां सुशीला जी को उनके डॉक्टरों ने बताया था कि वह फिर कभी गर्भधारण नहीं कर सकतीं। निराशा में डूबी सुशीला जी ने गुरुदेव से संपर्क किया, जिन्होंने उन्हें आश्वासन दिया कि वह चार बच्चों की मां बनेंगी और भविष्य में तीन बेटों को जन्म देंगी।

इस बातचीत के एक साल बाद, सुशीला जी ने एक बेटे को जन्म दिया। तीन साल बाद, उन्होंने एक और बेटे को जन्म दिया। जब सुशीला जी अपने दूसरे बेटे (तीसरे बच्चे) के जन्म के कुछ महीने बाद गुरुदेव से मिलीं, तो उन्होंने उन्हें बताया कि तीसरे बेटे के गर्भ धारण करने का समय निकट है। उन्होंने सम्मानपूर्वक मना कर दिया और तीन स्वस्थ बच्चों के आशीर्वाद के लिए उनका शुक्रिया अदा किया। जब गुरुदेव ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा कि तीसरा बेटा उनके भाग्य का हिस्सा है, तो उन्होंने उनसे अनुरोध किया कि वह उस संतान का आशीष किसी और को दे दें, क्योंकि वह अब कोई और बच्चा नहीं चाहती थीं।

कुछ साल बाद, जब सुशीला जी ने अपनी पारिवारिक समस्याओं का समाधान करने के अनुरोध के साथ गुरुदेव से सम्पर्क किया, तो उन्होंने कहा, “मैं जिस विकसित आत्मा को आपके घर बेटे के रूप में भेजना चाहता था, वह आपके स्वर्गवासी पिता की थी। हालांकि, एक और बच्चे को जन्म देने की आपकी अनिच्छा के कारण, मुझे उस आत्मा को दूसरे परिवार में जन्म देना पड़ा। यदि आप उस बच्चे को जन्म देने के लिए सहमत हो जातीं, तो वह आत्मा आपकी सभी समस्याओं का निवारण कर देती।” सुशीला जी ने महसूस किया कि उन्होंने अपने गुरु की बात न मानकर गलती की थी।

दिलचस्प बात यह है कि सुशीला जी की बेटे की तीव्र इच्छा उनके पति के आध्यात्मिक विकास का माध्यम बनी। गुरुदेव ने न केवल उन्हें दो स्वस्थ बेटों का आशीर्वाद दिया, बल्कि उन्होंने उनके परिवार को अपनी आध्यात्मिक छत्र-छाया में भी ले लिया जब उन्होंने चौधरी साहब को नई दिल्ली के पटेल नगर में स्थान पर सेवा का मौका दिया, जो आज तक चल रहा है।

एक अन्य व्यक्ति जिनके जीवन में गुरुदेव से मिलने के बाद क्रांतिकारी परिवर्तन आया, वे थे उनके वरिष्ठ सहयोगी डॉ शंकरनारायण जी।

गुरुदेव से मिलने से पहले डॉ. शंकरनारायण का परिवार कई तरह की समस्याओं से जूझ रहा था। चिंता का सबसे बड़ा कारण उनकी युवा बेटी वैशाली का स्वास्थ्य था, जिसे लगातार बुखार आता था और कभी-कभार दौरे पड़ते थे। जब शंकरनारायण जी ने गुरुदेव को अपनी मुश्किलों के बारे में बताया, तो उन्होंने कहा तो कुछ भी नहीं, सिर्फ मुस्कुरा दिये।

कुछ ही समय में, शंकरनारायण जी को गुरुदेव की आध्यात्मिक शक्तियों पर गहरा विश्वास हो गया। शंकरनारायण जी का अपने सहयोगी पर विश्वास ऐसा था कि उन्होंने अपनी बेटी की दवाइयों को कूड़ेदान में फेंक दिया, क्योंकि गुरुदेव के आशीर्वाद से उन्हें अब उन दवाइयों की जरूरत नहीं थी। वैशाली की स्थिति में लगातार सुधार होने लगा, और वह पूरी तरह स्वस्थ हो गई।

डॉ. शंकरनारायण पहले व्यक्ति थे जिन्होंने उनकी बेटी को पूर्ण स्वास्थ्य प्रदान करने वाले को गुरुजी कहकर संबोधित किया। गुरुदेव ने उन्हें जल्द ही शिष्य बना लिया।

काम के दौरान, गुरुदेव, हरिबाबू गुप्ता की चाय और जूस की दुकान पर अपने कुछ शिष्यों से बातचीत किया करते थे। यह स्टॉल नई दिल्ली के कनॉटप्लेस में कर्ज़न रोड पर गुरुदेव के कार्यालय के सामने स्थित था। जब गुप्ता जी ने पहली बार लोगों को गुरुदेव के पैर छूते देखा, तो उन्हें लगा कि गुरुदेव किसी महत्वपूर्ण पद पर कार्यरत, कोई प्रभावशाली व्यक्ति हैं। कुछ समय बाद उन्हें पता चला कि गुरुदेव का  सम्मान उनके पद के कारण नहीं बल्कि उनकी आध्यात्मिकता के कारण था। परिणामस्वरूप, गुप्ता जी भी भक्त बन गए, और उनका स्टॉल गुरुदेव की सहायता के इच्छुक लोगों के मिलने का केंद्र बन गया।

Gurudev at Gupta ji's tea and juice stall

गुप्ता जी के जूस एवं टी स्टॉल पर अपने अनुयायियों के साथ गुरुदेव।

जब कभी गुरुदेव गुप्ता जी के स्टॉल पर अपने मित्रों (मेहमानों) से मिलते तो, वे वहां उपस्थित अपने सहयोगियों के लिए भी चाय की पेशकश करते थे। कई लोग उनकी दयालुता का फायदा उठाते हुए मुफ्त में चाय पी जाते। जब उनसे पूछा गया कि उन्होंने लोगों को  इतनी आसानी से खुद का फायदा उठाने की इजाजत क्यों दी, तो गुरुदेव ने कहा, ”हम कल भी पिलाते थे, ये कल भी पीते थे। हम आज भी पिलाते हैं, ये आज भी पीते हैं। उनके शब्दों का तात्पर्य यह था कि उनके मुकद्दर में दूसरों की सेवा लिखी है।

सह-कार्यकर्ता आनंद प्रकाश पाराशर याद करते हुए कहते हैं, “उन्होंने कभी किसी के बीच अंतर नहीं किया। हमने उन्हें ऐसा करते कभी नहीं देखा। वे ज्यादातर लंच के समय कार्यालय के बाहर उनका इंतजार कर रहे लोगों से मिलते थे। चूंकि ये सारी शक्तियां उन्हें प्रकृति से मिली थीं, इसलिए उन्होंने कभी किसी की मदद से इनकार नहीं किया। वह हमेशा अपनी तरफ से सहयोग करते थे।”

गुरुदेव ने न केवल अपने ऑफिस में लोगों की सेवा की, बल्कि कई बार वह लंच के समय पास ही रहने वाली अपनी बहन के घर जाकर भी लोगों की सेवा करते थे।

यद्यपि गुरुदेव जरूरतमंदों की मदद के लिए हमेशा मौजूद रहते थे, लेकिन कार्यस्थल पर मिले अचानक ध्यानाकर्षण ने उन्हें असहज कर दिया था क्योंकि उन्होंने न तो कभी प्रसिद्धि की कामना की और न ही वैभव की। गुरुदेव बहुत प्रयास करते कि वह लोगों की चर्चा का केन्द्र न बनें, लेकिन इसके बावजूद उनके चमत्कारों के किस्से उनके कार्यालय की दीवारें लांघकर बाहर तक फैल गए। गुप्ता जी गुरुदेव को याद करते हुए कहते हैं कि लोग कार्यालय की अवधि के दौरान ऑफिस से बाहर आते-जाते उनकी एक झलक पाने या छोटी-सी बातचीत की उम्मीद में खड़े रहते थे। ऐसे समय में गुरुदेव जादूगर हूडिनी की तरह गुप्ताजी के स्कूटर पर पीछे बैठकर हेलमेट से चेहरा छुपा कर निकल जाते थे।

शिष्यों और भक्तों की संख्या लगातार बढ़ती रही, साथ ही गुरुदेव की विनम्रता भी बरकरार रही। वह कार्यालय में अपने वरिष्ठ अधिकारियों को पूरा सम्मान देते, हमेशा उन्हें ‘सर’ कहकर ही सम्बोधित करते, और उनकी अनुमति लिए बिना कभी भी उनके कक्ष में प्रवेश नहीं करते।

गुरुदेव के पूर्व बॉस, प्रताप सिंह जी ने उन्हें एक बेफिक्र इंसान के रूप में वर्णित किया जो ज़्यादातर लोगों की गलतियों को नज़रअंदाज़ कर देता था। गुरुदेव की सराहना करते हुए उन्होंने बताया कि अपने सेवाभाव को उन्होंने अपने पेशेवर कर्तव्यों के निर्वहन में कभी बाधा नहीं बनने दिया। उनके शब्दों में, “उनके शिष्य और अन्य लोग जो उनसे मदद चाहते थे, वे हमेशा हमारे कार्यालय के आस-पास घूमते रहते। मैं इसमें ढल गया, क्योंकि मैंने देखा कि वे लोगों की मदद करने और उनके दुखों को दूर करने के लिए हर संभव प्रयास करते थे। मैं ऐसे व्यक्ति का समर्थन कैसे नहीं करता, जो लोक कल्याण के लिए इतना कुछ कर रहा था? जबकि मुझे नहीं लगता कि मैं हर समय उनके प्रति उदार होता था। मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि उन्होंने कभी भी उनके प्रति मेरे व्यवहार का अनुचित लाभ नहीं उठाया। वास्तव में, जब मैं निरीक्षण के लिए उनके शिविरों में जाता था, तो वह मेरे लिए खाना बनाते थे। वह मेरा बहुत सम्मान करते थे।”

गुरुदेव दूसरों की अपेक्षा कड़ी मेहनत करते थे, ऑफिस का समय समाप्त होने के घंटों के बाद भी वे काम किया करते थे, व्यक्तिगत रूप से जमीन और मिट्टी की जांच किये बिना वह कभी किसी सरकारी रिपोर्ट पर हस्ताक्षर नहीं करते थे। वास्तव में, यात्रा कितनी भी कठिन हो, वह दूर-दराज के दुर्गम स्थानों पर कभी भी काम के लिए जाने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। एक बार उन्होंने बिट्टू जी से कहा था, “मैं भारत सरकार से वेतन लेता हूं, अतः मैं अपने व्यावसायिक कर्तव्यों का पालन पूरी ईमानदारी और सत्यनिष्ठा से करने के लिए वचनबद्ध हूं। मैं इसमें कभी समझौता नहीं कर सकता।”

आध्यात्मिक मार्ग पर चलते हुए, अपने पेशे के प्रति गुरुदेव का समर्पण उनके शिष्यों, भक्तों और अनुयायियों के लिए एक मिसाल थी।