पारिवारिक व्यक्ति

शिव का शक्ति से मिलन

Quote
जिस नारी से हुआ विवाह,
बनीं वो उनकी शक्ति का आधार और उस शिव की शक्ति,
मातृ भाव से संभाली घराने की बागडोर
जीवन भर थामे रखी रिश्तों की हर डोर

Shiv and Shakti

जैसे ही गुरुदेव की नौकरी लग गई और वे अपने जीवन में व्यवस्थित हो गए तो उनके माता-पिता ने अपने बेटे के लिए योग्य वधू की तलाश शुरू कर दी। उनकी खोज 1960 में तब समाप्त हुई जब गुरुदेव ने 20 वर्षीय सुदेश शर्मा से शादी की, जो पंजाब के लुधियाना में रहने वाले एक सम्मानित परिवार से थीं। वर्षों बाद, सबने श्रद्धापूर्वक उन्हें मां का दर्जा दिया और वे माताजी के रूप में जानी जाने लगीं।

माताजी के पिता एक कोयला व्यापारी थे, जिनकी मृत्यु तभी हो गई थी, जब वे छोटी थीं। वे सात भाई-बहन थे- चार भाई और तीन बहनें। उनके सबसे बड़े भाई भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य और प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी थे, जबकि एक अन्य भाई शिक्षक थे।

मृत्यु से कुछ वर्ष पूर्व माताजी ने मुझे दिए गए एक साक्षात्कार में बताया था कि विवाह के समय उन्हें गुरुदेव के आध्यात्मिक रुझान का अंदाजा नहीं था। शादी के एक हफ्ते बाद ही उन्हें इस बात का पता चला, जब उन्होंने गुरुदेव को बिस्तर पर अचैतन्य अवस्था में लेटा हुआ पाया। किसी अनहोनी की आशंका से वे मदद के लिए चिल्लाते हुए अपनी ननद के कमरे की ओर भागीं। गुरुदेव की बहन ने उन्हें सूचित किया कि पाठ (ध्यान) के दौरान गुरुदेव अचेतन अवस्था में चले जाते हैं इसलिए चिंता की कोई बात नहीं है। माताजी ने मुस्कराते हुए बताया कि गुरुदेव के आध्यात्मिक पहलू से उनका परिचय भावनात्मक रूप से तनावपूर्ण था।

अधिकांश विवाहों की तरह, उनकी भी कुछ शुरुआती समस्याएं थीं। कुछ हफ्तों में, गुरुदेव ने समकालीन तरीके से सन्यास (त्याग) का अभ्यास करने का फैसला ले लिया। उन्होंने आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति हेतु गृह त्याग कर दिया।

पांच साल बाद, अमृतसर में गुरुद्वारा श्री संतोकसर साहेब में ध्यान करते हुए, गुरुदेव को एक आवाज़ सुनाई दी कि उनको आध्यात्मिक प्राप्ति तभी होगी, जब वे पति के रूप में अपने कर्तव्यों को पूरा करेंगे। वह जल्द ही माताजी के पास लौट आए और गृहस्थ के जीवन को अपनाया। वर्षों बाद, उन्होंने अपने शिष्यों में भी गृहस्थ आश्रम की इस अवधारणा को विकसित किया।

गुरुदेव अत्यन्त शिष्ट पति थे, वे पत्नी को प्यार से ‘मास्टर’ कहा (वह स्कूल में पढ़ाती थीं)  करते थे। उनका मजाकिया स्वभाव कई बार माता जी को असमंजस में डाल देता था। गुरुदेव के महागुरु के रूप में अवतरित होने से पूर्व उनका जीवन साधारण सुखों से भरपूर था, जैसे कि गुरुदेव के साथ साइकिल या स्कूटर पर सवारी करना और देर रात के मूवी शो देखना।

जब एक बार गुरुदेव ने माताजी से कहा, “मास्टर, देखना 35 साल की उम्र में मैं क्या बन जाऊंगा!” माताजी ने सहज रूप से उसे काम पर पदोन्नति और वेतन में वृद्धि से संबंधित भविष्यवाणी मान लिया। वे यह नहीं जानती थी कि गुरुदेव उस आयु का उल्लेख कर रहे हैं जिस पर वह एक गृहस्थ और आध्यात्मिक साधक से महागुरु के रूप में परिणत हो जाएंगे। बहुत ही प्रमोद से इस कहानी को याद करते हुए वह हंस पड़ीं।

माताजी घर का खर्च, शिक्षक के रूप में उन्हें मिले वेतन और गुरुदेव जो पैसा दिया करते थे, उससे चलाया करती थीं। भले ही उन्होंने कभी शिकायत नहीं की हो, लेकिन छोटे बच्चों की परवरिश करते हुए कम पैसों में घर चलाना आसान नहीं था। सेवा में संलग्न, गुरुदेव अक्सर आर्थिक परिस्थितियों से अनजान होते थे, जिनका सामना करते हुए माताजी को कड़े निर्णय लेने पड़ते थे।

एक दिन, गुरुदेव और उनकी बेटी रेणु जी बाजार के चौक से गुजर रहे थे, रेणु जी ने एक व्यक्ति को सड़क किनारे दूध की बोतलें बेचते देखा। उन्होंने अपने पिता जी से उनके लिए एक बोतल खरीदने का आग्रह किया। उन्होंने एक घूंट में पूरा दूध पी लिया, और फिर दूसरी बोतल के लिए आग्रह किया। घर लौटने पर, गुरुदेव ने माताजी से पूछा कि उन्होंने रेणु को घर से निकलने से पहले दूध क्यों नहीं पिलाया था। तब माताजी ने उन्हें घर की विषम वित्तीय स्थिति से अवगत कराया, जिसमें हर दिन बच्चों के लिए दूध खरीदना संभव नहीं था। ऐसा माना जाता है कि इस घटना ने गुरुदेव को व्याकुल कर दिया, उन्होंने पूरी रात यह सोचने में बिताई कि क्या उनके द्वारा चुना गया आध्यात्मिक मार्ग उनके अल्पायु परिवार के लिए सही है? यद्यपि, सुबह तक, गुरुदेव इस बात को लेकर अधिक दृढ़ थे कि चाहे कोई भी व्यक्तिगत बलिदान क्यों ना करना पड़े, वे अपना जीवन दूसरों की सेवा में ही व्यतीत करेंगे।

माताजी इस यात्रा में एक सहयोगी और सूत्रधार बनीं। वह गुरुदेव के शिव (नर श्रेष्ठ) की शक्ति (नारी श्रेष्ठ) थी, जिसने घर की देखभाल की जिम्मेदारी ली, जबकि गुरुदेव ने सेवा पर ध्यान केंद्रित किया।

Gurudev and his family

परिवार के साथ (बाएं से दाएं) – रेणु, लिआ, गुरुदेव, पुनीत, परवेश, माताजी एवं अल्का।

गुरुदेव की आध्यात्मिक समझ, अक्सर माताजी को हैरान कर देती। वे उन्हें कर्नल विनोद जासूसी उपन्यास या केवल उर्दू अख़बार पढ़ते हुए देखती थीं। माता जी के लिए उनके ज्ञान के स्रोत की थाह ले पाना मुश्किल था, जो कि पुरातन काल के महान संतों और गुरुओं की बराबरी का होता था। अपने विवाहित जीवन के प्रारंभिक वर्षों में, माता जी को इस बात का एहसास ही नहीं था कि गुरुदेव की तीसरी आंख खुल चुकी थी और उनकी इच्छाशक्ति निहित रूप से अत्यंत शक्तिशाली थी।

आध्यात्मिक रूप से ज्ञानी होने के बावजूद, गुरुदेव ने अपनी पत्नी पर अपनी मान्यताओं को कभी नहीं थोपा। वे व्यावहारिक थे, और अक्सर माताजी को उनकी आध्यात्मिक और धार्मिक आस्थाओं का अनुसरण करने के लिए प्रोत्साहित करते थे। एक बार उन्होंने उनसे कहा था कि यदि वह मंत्र जाप न भी करें तो भी उनकी निःस्वार्थ सेवा और पाठ के लाभ का आधा हिस्सा मिलेगा ही। कई वर्षों बाद गुरुदेव ने माताजी को शक्तिशाली महा गायत्री मंत्र दिया। माताजी ने एक प्रसंग याद किया जब गुरुदेव ने उनसे मजाकिया लहजे में कहा था, ‘यदि तुम ऐसे ही जाप करती रही तो मुझसे ज्यादा शक्तिशाली बन जाओगी। एक-दूसरे से भली-भांति परिचित, गुरुदेव और माता जी की आपसी चुहलबाजी देखने में मजा आता था। लेकिन सच कहा जाए तो ऐसा पति कभी पैदा नहीं हुआ जिसे नारीत्व ने बख्शा हो!

गुरुदेव एक कठोर शिक्षक थे, जो अक्सर अपने शिष्यों की अग्नि परीक्षा लेते थे। हमारे लिए उन्होंने जो उच्च मानक निर्धारित किए थे, हम हरदम उन पर खरे नहीं उतर पाते और हमें नियमित रूप से उनकी फटकार सुननी पड़ती। तब माताजी हमारी अधिवक्ता के रूप में, हमारे मामलों को जज साहब के सामने बहादुरी से पेश करती (लड़तीं), जबकि हम उनके पीछे छिपे होते थे। यहां तक कि अपनी पत्नियों के द्वारा उचित मार्ग पर लाए जाने के बाद ही देवताओं एवं महान व्यक्तियों के साथ उचित न्याय हुआ।

माताजी हमारे साथ अपने बच्चों जैसा ही व्यवहार करती थीं। वे हमारी तरफदारी करतीं, हमारी देखभाल करतीं और गुरुवाद के सांप-सीढ़ी के खेल में वे हमारा मनोबल बढ़ातीं। माताजी न केवल अपने पति की सहायक थीं, बल्कि उनके शिष्यों की मां थीं और स्वयं में एक आध्यात्मिक शक्ति भी थीं।

एक शिष्य ने अपनी बेटी के सगाई समारोह का आयोजन किया, तो वह आमंत्रित मेहमानों से ज्यादा मेहमानों को देखकर परेशान हो गया। वह भोजन कम पड़ जाने की आशंका से चिंतित था। जब माताजी कार्यक्रम स्थल पर पहुंचीं, तो शिष्य ने उन्हें अपनी आशंका से अवगत कराया। माता जी ने उसे उन्हें रसोई में ले चलने के लिए कहा। उन्होंने उन बर्तनों के अंदर झांककर देखा, जिनमें भोजन रखा था और उन्हें ढक्कन के साथ ढंक दिया। उन्होंने वहां उपस्थित लोगों से कहा कि वे भोजन परोसते समय बर्तनों के अंदर ना झांकें। जो भोजन 150 से अधिक लोगों के लिए तैयार नहीं किया गया था, 250 लोगों के लिए पर्याप्त हो गया। जब शिष्य ने गुरुदेव को पूरी बात से अवगत कराया तो, गुरुदेव ने टिप्पणी की, “आपकी माता अन्नपूर्णा (भोजन और पोषण की दाता) हैं।”

जब एक वाहन दुर्घटना में एक शिष्य के बेटे की सिर में कई फ्रैक्चर हो गए, तो उसके माता-पिता ने स्थान से मदद (मदद और उपचार के लिए केंद्र) का अनुरोध किया। माताजी एक दिन बाद अस्पताल पहुंचीं और उन्होंने लड़के के सिर पर हाथ फेरा और चिंतित माता-पिता को सबकुछ ठीक हो जाने आश्वासन देकर वापस लौट गईं। एक हफ्ते बाद अगला एमआरआई स्कैन किया गया, तो सिर पर केवल एक माइक्रोफ्रैक्चर दिखाई दे रहा था!

गुरुदेव के निधन के बाद, माताजी ने एकचित्त होकर निस्वार्थ सेवा की विरासत को आगे बढ़ाया। उनकी यह प्रतिबद्धता अपने पति और उनके निस्वार्थ काम के प्रति उनके गहरे और अटूट विश्वास को दर्शाती थी।

माताजी ने मई 2014 में अपना भौतिक शरीर त्याग दिया। उनकी मृत्यु के दिन, ज्योतिषीय दृष्टि से तारों का शुभ संयोग था। ऐसे शुभ मुहूर्त (शुभ मुहूर्त) बहुत कम लोगों को नसीब होते हैं, जो उनकी उच्च आध्यात्मिक स्थिति का सूचक था।

इस जीवनकाल में, गुरुदेव और माताजी का रिश्ता एक विवाहित जोड़े का रहा होगा, लेकिन वास्तव में यह एक असाधारण शक्तिशाली आध्यात्मिक गठबंधन था।

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