पारिवारिक व्यक्ति
पुत्र
एक नन्हा शरारती बच्चा, जल्द ही बच्चे से पुरुष बन गया।
लेकिन माँ के प्यार और उनके त्याग को उसने कभी नहीं भुलाया।
गुरुदेव हरदम कहते थे कि हर व्यक्ति के तीन गुरु होते हैं – उनके माता-पिता, उनके शिक्षक, और सबसे महत्वपूर्ण, उनके आध्यात्मिक मार्गदर्शक और गुरु।
गुरुदेव जानते थे कि एक व्यक्ति पर अपने माता-पिता के बहुत ऋण होते हैं, वे अपने अनुयायियों, भक्तों और शिष्यों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करते थे कि वे उनकी देख-भाल करें और उन्हें वह सम्मान दें, जिसके वे हकदार हैं।
गुरुदेव अपने माता-पिता, खासकर अपनी माँ के बहुत करीब थे। उनकी मां की लगन और निष्ठा ने निश्चित ही गुरुदेव में आभार की गहरी भावना और उसके दर्शन को सक्रिय और परिशिष्ट किया।
जब गुरुदेव छोटे थे, तो उनका पीछा करते हुए उनकी मां थक जाती थी, यहां तक कि उनके पैरों में छाले पड़ जाते। वह चाहती थीं कि उनका बेटा आसपास के इलाकों में भटकना छोड़कर, अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे। इस उम्मीद में मां तो एथलीट बन गई, पर बेटे की शरारतों में कोई कमी नहीं आई।
उम्र बढ़ने के साथ, गुरुदेव की अध्यात्म में रुचि बढ़ती गई। साधुओं, फकीरों और मनीषियों की संगति में आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि पाने के लिए वे कभी-कभी घंटों और कभी-कभी दिनों तक गायब रहते थे। ऐसी दुनिया में जहां, अभी मोबाइल फोन का आविष्कार होना बाकी था, गुरुदेव का आध्यात्मिक उत्साह उनकी मां के लिए निरंतर तनाव का कारण रहा।
पर्दे पर नहीं, असल जीवन में बिखेरी रोशनी
स्कूल के पढ़ाई के बाद, गुरुदेव का चयन सैन्य सेवा के लिए हो गया। उनकी मां अपने सबसे बड़े बेटे को फौज में नहीं भेजना चाहती थीं और उनके आग्रह पर, गुरुदेव ने भारतीय सशस्त्र बलों में अपना करियर बनाने के अपने निर्णय को त्याग दिया। फिल्मों के शौकीन होने के नाते, उन्होंने फिर अभिनेता बनने के बारे में सोचा। हालांकि उन लाखों लोगों के सौभाग्य से, जिनकी वे भविष्य में सेवा करने वाले थे, फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एफटीआईआई), पुणे ने उनके आवेदन को अस्वीकार कर दिया था।
भले ही भाग्य से गुरुदेव के सेल्युलाइड सपने खिलने से पहले मुरझा गए, लेकिन भूमिका निभाने की कला उन्हें किसी से कहीं बेहतर आती थी। एक बार मैंने स्वयं गुड़गांव के खांडसा के फार्महाउस में उनके इस अभिनय कौशल को देखा था।
गुरुदेव के भक्त बिल्लू को अपने जिगर से ज्यादा शराब पसंद थी। उनका और गुरुदेव का रिश्ता हैरान कर देने वाला था।
गुरुदेव ने बिल्लू को शराब छोड़ने को कहा।
हरदम की तरह बिल्लू ने वादा कर दिया।
बिल्लू अपने वादे से मुकर गया
वह सुनता था, समझता था और फिर वही करता था।
एक शाम, जब गुरुदेव गौ-शाला में बैठे मुझे आध्यात्मिक अवधारणाएं समझा रहे थे, बिल्लू अपना वादा तोड़ते हुए, शराब के नशे में झूमता हुआ वहां आया। मैंने देखा कि उसे देखते ही गुरुदेव की भाव-भंगिमा एकदम बदल गई। जब बिल्लू ने शराब न छोड़ पाने पर अपनी लाचारी जाहिर की, तो गुरुदेव का धैर्य जवाब दे गया। वे बिल्लू पर एकदम भड़क गए। मैंने गुरुदेव को पहले कभी उस रूप में नहीं देखा था। जैसे ही उन्होंने उस पर नाराज होना शुरू किया, बिल्लू और मैं डर के मारे कांप उठे। उनकी कठोरता देखकर, बिल्लू दुम दबाकर गौशाला से फरार हो गया। जैसे ही वह नजरों से ओझल हुआ, गुरुदेव मेरी ओर मुड़े, मुस्कुराए और कहा, “बरखुरदार, कैसा लगा हमारा अभिनय?”। मैं अवाक था और हक्का बक्का होकर देखता रह गया।
गुरुदेव ने अपनी आध्यात्मिक यात्रा में भूमिकाएं निभाने को एक प्रभावी अस्त्र के रूप में इस्तेमाल किया। जब उन्होंने पिता की भूमिका निभाई, तो वे सख्त या नम्र थे। एक मित्र के रूप में, अपने चुटकुलों से उन्होंने हमें खूब हंसाया, लेकिन एक महागुरु के रूप में, वे अत्यन्त कठोर और औपचारिक थे, जिससे दिल में विस्मय और सम्मान दोनों पैदा होता था। गुरुदेव अपने किरदारों को जिस कुशलता से जीते थे, उससे मुझे और अन्य कई लोगों को अपनी भूमिकाएं निभाने का कौशल सुधारने में मदद मिली।
गुरुदेव के अभिनेता बनने के सपने का समय से पहले अंत हो जाना नियति थी, क्योंकि उन्हें एक ऐसा आध्यात्मिक नायक बनना था, जैसा दुनिया में पहले कभी नहीं हुआ।